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नीम करोली बाबा ने श्रीरामचरितमानस में संकेत दिया
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नीम करोली बाबा ने श्रीरामचरितमानस में संकेत दिया

नीम करोली बाबा ने श्रीरामचरितमानस में संकेत दिया 

पुन: रामायण में संकेत देना

1975 से

7 मई 1975 को मेरे देवर श्री सुबोध मुकर्जी (S.D.I.) अत्यधिक बीमार पड़ गए| उनको तेज ज्वर हुआ संग में बेचैन करने वाली भयंकर खांसी| दो तीनो वर्षों से ही उनको पेट में दर्द रहने की शिकायत थी| हाकिम, बैद्य तथा डाक्टर सबने परहेजी खाने पर बल दिया था| पर लोभ के कारण वह सभी प्रकार के खाने खाते थे|

अंडा कलिया मछली सभी उनको प्रिय थे तथा खाते भी थे| संग में दवाई भी चलती रहती थी| पर उदार पीड़ा कम नहीं होती थी| डाo चटर्जी अवकाश [प्राप्त सिविल सर्जन पड़ोस ही में रहते थे उनको बुलाया और दिखाया| उन्होंने देखते ही कहा ब्रान्को-निमोनिया हो गया है इसका इलाज शुरू किया| बुखार तथा खाँसी तो कुछ कम हो चला था पर 27th मई, 1975 को बड़ी जोर से के हुई  उसी के बाद फिर दो बार और तेजी से के हुई| के में जमे-जमे काले रंग के खून के टुकड़े निकले|

यह देख कर हम सब बहुत घबरा गए और फिर डाo चटर्जी को दिखाने के लिए बुलाया|

उन्होंने Injection आदि दिया पर तबियत गिरती ही चली गई और 28th मई को उनका देहांत हो गया|

घर के सभी लोग विशेष कर माँ तथा माशिमा जिन्होंने उन्हें गोद में बच्चे की तरह पाला था अत्यधिक दु:खी थी| प्रोफेसर साहब ने अपने भाई और बच्चे की तरह पला था और अपने साथ ही रखते थे दुःख के कारण व्याकुल थे|

दादा मुख़र्जी के चरण लाल हो जाना :https://babaneemkaroli.in/dada-mukherjee-2/

मेरी सास को यह दुःख बर्दाश्त नहीं हुआ और 30th जुलाई को प्रात: बिछौने से उठते बेहोश हो गई तथा गिर गई| डाo को बुलाया| उन्होंने आते ही कहा फालिज गिर गया है| बारवें दिन 12th August को उन्होंने अपने प्राण छोड़ दिए|

रामायण में पढ़ी हुई लाईने जिन पर पूo महाराज जी “राम, राम” लिख गए थे मेरी मस्तिष्क में घूमने लगीं|

“उमा कहूँ मैं अनुभव अपना |

सत हरि भजन जगत सब अपना ||”

बोध हुआ की संसार के सारे नाते रिश्ते बनाये जाते हैं| न कोई अपने साथ किसी को लाता है और न मृत्यु के समय किसी को ले जाता है|

मनुष्य तो एक पानी का बबूला तथा तृणवत है| सारी कल्पना सारा खेल तो स्वप्न सा लगता है| जो कुछ भी हो मनुष्य घोर दुःख के अनुभव करने के बाद भी संसार की दिनचर्या में लगा जाता है| इस प्रकार संसार के खेल तो चलते ही रहते हैं|

अप्रैल 1976 को पुन: दुर्गा सप्तशती तथा मानस पाठ करने की इच्छा प्रबल हो उठी| इस वर्ष गत वर्ष से अधिक कठिनाई को बोध कर रही थीं क्योंकि इस वर्ष मेरी सास जीवित नहीं थी और घर के सब कार्य की जिम्मेदारी मेरे ही कन्धों पर आ पड़ी थी|

सबेरे और संध्या की रसोई बनाना, घर में आये हुए भक्तों और रिश्तेदारों की आवभगत विशेष रूप से विदेशी भक्तों की सेवा करना मेरा धर्म बन गया था| इन्ही कारणों से मैं बहुत से व्यकतिगत कार्यों को न कर सकती थी पर दुर्गा सप्तशती, रामायण पाठ नौ दिन में समाप्त करने की इच्छा इतनी प्रबल हो उठी जिसके फलस्वरूप मुझे अपना पाठ आरम्भ करना पड़ा|

उन दिनों मेरे मामा ससुर तथा ममिया सास दिल्ली से आये हुए थे| दुर्गा सप्तशती प्रात: चाय पीने से पूर्व कर लेती थी तथा दिन में 3.30 बजे से मानस पाठ आरम्भ कर चाय पीने तक (संध्या पांच बजे तक) समाप्त कर पाती थी| तदुपरान्त रसोई का आयोजन करने में जुट जाती|

उन दिनों शिक्षा विभाग मैं सहायक उप-शिक्षा निदेशक (महिला) के पद पर कार्य कर रही थी सो प्रात: 10.00 बजे दफ्तर तैयार होकर जाना पड़ता था और संध्या 5.00 बजे लौटना पड़ता था| चैत पंचमी अप्रैल 5, 1976 को पढ़ते समय आभास हुआ की कोई पास में खड़ा है पर पाठ बड़ी तीव्र गति से चल रहा था| इधर-उधर देखने की कम गुंजाइश थी क्योंकि समय बर्बाद होने की संभावना थी|

इसी कारण पाठ बड़े एकाग्र चित होकर एक निष्ठा से पढ़ रही थी| समाप्ति पर देखा की निम्नलिखित दोहे की दाहिनी ओर डबल लाइन अंकित है तथा सही का निशान लगा कर हमें बताया गया है कि आज के कलिकाल में वही नर चतुर है जो सब छोड़कर भगवान को भजता है|

कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप |

परिहरी सकल भरोस रामहि भजहि टे चतुर नर ||

                                                                                 उत्तरकाण्ड || ६ख ||

पाठ की समाप्ति पर प्रोफेसर साहब को भी दिखाया| पूo महाराज जी के हाथ के लगे निशान ने सबको आश्चर्य में डाल दिया| वे इस प्रकार सूक्ष्म रूप से प्राय: दर्शन देकर कृपा करते रहते हैं|

प्रोफेसर साहब ने कहा “अब तुम इस रामायण से न पढना| मुझे बात बहुत अच्छी नहीं लगी इस कारण सप्तमी के दिन से मैं नयी रामायण से पाठ करने लगी| उसी कमरे में मेरे मामा ससुर एक आराम कुर्सी पर बैठ कर धार्मिक पुस्तक पढ़ रहे थे| दूसरी कुर्सी पर हनुमान मौर्य एक M.A. अर्थशास्त्र का विद्यार्थी (अब बस्ती जिले में A.D.C. cooperative, है) अपनी पुस्तक पढ़ रहा था|

घर का नौकर (चौदह, पंद्रह वर्ष का बालक) बाबूलाल दूसरी रामायण की प्रति के पन्ने उलट-उलट कर प्रत्येक तस्वीर ऊँगली रख-रख कर देख रहा था और ममिया सास से जो उस समय कालीन पर उसी कमरे में बैठी है — कहता है

“देखो इसमें चिरई अस का बना है?” उसके कई बार ममिया सास से कहने पर  भी मैं अपना पाठ पूर्ववत् करती ही रही|

उनको देखकर बाबूलाल से रहा नहीं गया और दौड़कर उनके पास जाकर कहने लगा— “रामायण में देखिए दादा चिरई का अस बना है|” यह सुनकर प्रोo साहब भीतर बड़े कमरे में आये जहाँ मैं अपना पाठ कर रही थी| तब तक मेरा पाठ समाप्त हो गया था|

जैसे ही प्रोo साहब ने रामायण में देखा तो आश्चर्यचकित रह गए| इस रामायण में पूo महाराज जी के चित्रकूट यात्रा के समय श्री हनुमान जी का प्रथम पृष्ठ पर हस्ताक्षर किये थे|

इसी प्रति के दुसरे पन्ने पर तथा पाठ के प्रारम्भ होने के 2 श्लोक के बाईं ओर 27 बार “राम राम” अंकित किया है| लिखावट पूo महाराज जी की ही है इसमें तनिक भी संदेह नहीं है|

इसके पूर्व भी पूo महाराज के हाथ का लिखा “राम राम” उनकी अनुपस्थिति में प्राप्त हो चुका है|

संत सदैव अपने भक्तों को प्रेरित करने के लिए परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से दर्शन देते ही रहते हैं|

9 अप्रैल राम नवमी के दिन सुन्दर काण्ड पाठ एवं सहभोज का आयोजन पूo महाराज जी के आदेशानुसार बड़े पैमाने पर आयोजित किया गया था|

बाबा ने अपनी फोटो पूर्व दिशा की और कर ली https://babaneemkaroli.in/photo-of-neem-karoli-baba-turns-eastwards/

नीम करोली बाबा ने श्रीरामचरितमानस में संकेत दिया
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इस कार्य में समय और ऊर्जा लगती ही है और हमको इसका कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता है सिवाय youtube के विज्ञापन आदि के जो कि नहीं के बराबर ही रहता है |

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7 मई 1975 को मेरे देवर श्री सुबोध मुकर्जी (S.D.I.) अत्यधिक बीमार पड़ गए| उनको तेज ज्वर हुआ संग में बेचैन करने वाली भयंकर खांसी| दो तीनो वर्षों से ही उनको पेट में दर्द रहने की शिकायत थी| हाकिम, बैद्य तथा डाक्टर सबने परहेजी खाने पर बल दिया था| पर लोभ के कारण वह सभी प्रकार के खाने खाते थे| अंडा कलिया मछली सभी उनको प्रिय थे तथा खाते भी थे| संग में दवाई भी चलती रहती थी| पर उदार पीड़ा कम नहीं होती थी| डाo चटर्जी अवकाश [प्राप्त सिविल सर्जन पड़ोस ही में रहते थे उनको बुलाया और दिखाया| उन्होंने देखते ही कहा ब्रान्को-निमोनिया हो गया है इसका इलाज शुरू किया| बुखार तथा खाँसी तो कुछ कम हो चला था पर 27th मई, 1975 को बड़ी जोर से के हुई  उसी के बाद फिर दो बार और तेजी से के हुई| के में जमे-जमे काले रंग के खून के टुकड़े निकले| यह देख कर हम सब बहुत घबरा गए और फिर डाo चटर्जी को दिखाने के लिए बुलाया| उन्होंने Injection आदि दिया पर तबियत गिरती ही चली गई और 28th मई को उनका देहांत हो गया| घर के सभी लोग विशेष कर माँ तथा माशिमा जिन्होंने उन्हें गोद में बच्चे की तरह पाला था अत्यधिक दु:खी थी| प्रोफेसर साहब ने अपने भाई और बच्चे की तरह पला था और अपने साथ ही रखते थे दुःख के कारण व्याकुल थे| मेरी सास को यह दुःख बर्दाश्त नहीं हुआ और 30th जुलाई को प्रात: बिछौने से उठते बेहोश हो गई तथा गिर गई| डाo को बुलाया| उन्होंने आते ही कहा फालिज गिर गया है| बारवें दिन 12th August को उन्होंने अपने प्राण छोड़ दिए| रामायण में पढ़ी हुई लाईने जिन पर पूo महाराज जी “राम, राम” लिख गए थे मेरी मस्तिष्क में घूमने लगीं|

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अप्रैल 1976 को पुन: दुर्गा सप्तशती तथा मानस पाठ करने की इच्छा प्रबल हो उठी| इस वर्ष गत वर्ष से अधिक कठिनाई को बोध कर रही थीं क्योंकि इस वर्ष मेरी सास जीवित नहीं थी और घर के सब कार्य की जिम्मेदारी मेरे ही कन्धों पर आ पड़ी थी| सबेरे और संध्या की रसोई बनाना, घर में आये हुए भक्तों और रिश्तेदारों की आवभगत विशेष रूप से विदेशी भक्तों की सेवा करना मेरा धर्म बन गया था| इन्ही कारणों से मैं बहुत से व्यकतिगत कार्यों को न कर सकती थी पर दुर्गा सप्तशती, रामायण पाठ नौ दिन में समाप्त करने की इच्छा इतनी प्रबल हो उठी जिसके फलस्वरूप मुझे अपना पाठ आरम्भ करना पड़ा| उन दिनों मेरे मामा ससुर तथा ममिया सास दिल्ली से आये हुए थे| दुर्गा सप्तशती प्रात: चाय पीने से पूर्व कर लेती थी तथा दिन में 3.30 बजे से मानस पाठ आरम्भ कर चाय पीने तक (संध्या [पांच बजे तक) समाप्त कर पाती थी| तदुपरान्त रसोई का आयोजन करने में जुट जाती| उन दिनों शिक्षा विभाग मैं सहायक उप-शिक्षा निदेशक (महिला) के पद पर कार्य कर रही थी सो प्रात: 10.00 बजे दफ्तर तैयार होकर जाना पड़ता था और संध्या 5.00 बजे लौटना पड़ता था| चैत पंचमी अप्रैल 5, 1976 को पढ़ते समय आभास हुआ की कोई पास में खड़ा है पर पाठ बड़ी तीव्र गति से चल रहा था| इधर-उधर देखने की कम गुंजाइश थी क्योंकि समय बर्बाद होने की संभावना थी| इसी कारण पाठ बड़े एकाग्र चित होकर एक निष्ठा से पढ़ रही थी| समाप्ति पर देखा की निम्नलिखित दोहे की दाहिनी ओर डबल लाइन अंकित है तथा सही का निशान लगा कर हमें बताया गया है कि आज के कलिकाल में वही नर चतुर है जो सब छोड़कर भगवान को भजता है|

कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप |

परिहरी सकल भरोस रामहि भजहि टे चतुर नर ||

                                                                                 उत्तरकाण्ड || ६ख ||

पाठ की समाप्ति पर प्रोफेसर साहब को भी दिखाया| पूo महाराज जी के हाथ के लगे निशान ने सबको आश्चर्य में डाल दिया| वे इस प्रकार सूक्ष्म रूप से प्राय: दर्शन देकर कृपा करते रहते हैं| प्रोफेसर साहब ने कहा “अब तुम इस रामायण से न पढना| मुझे बात बहुत अच्छी नहीं लगी इस कारण सप्तमी के दिन से मैं नयी रामायण से पाठ करने लगी| उसी कमरे में मेरे मामा ससुर एक आराम कुर्सी पर बैठ कर धार्मिक पुस्तक पढ़ रहे थे| दूसरी कुर्सी पर हनुमान मौर्य एक M.A. अर्थशास्त्र का विद्यार्थी (अब बस्ती जिले में A.D.C. cooperative, है) अपनी पुस्तक पढ़ रहा था| घर का नौकर (चौदह, पंद्रह वर्ष का बालक) बाबूलाल दूसरी रामायण की प्रति के पन्ने उलट-उलट कर प्रत्येक तस्वीर ऊँगली रख-रख कर देख रहा था और ममिया सास से जो उस समय कालीन पर उसी कमरे में बैठी है — कहता है

“देखो इसमें चिरई अस का बना है?” उसके कई बार ममिया सास से कहने पर  भी मैं अपना पाठ पूर्ववत् करती ही रही| उनको देखकर बाबूलाल से रहा नहीं गया और दौड़कर उनके पास जाकर कहने लगा— “रामायण में देखिए दादा चिरई का अस बना है|” यह सुनकर प्रोo साहब भीतर बड़े कमरे में आये जहाँ मैं अपना पाठ कर रही थी| तब तक मेरा पाठ समाप्त हो गया था| जैसे ही प्रोo साहब ने रामायण में देखा तो आश्चर्यचकित रह गए| इस रामायण में पूo महाराज जी के चित्रकूट यात्रा के समय श्री हनुमान जी का प्रथम पृष्ठ पर हस्ताक्षर किये थे| इसी प्रति के दुसरे पन्ने पर तथा पाठ के प्रारम्भ होने के 2 श्लोक के बाईं ओर 27 बार “राम राम” अंकित किया है| लिखावट पूo महाराज जी की ही है इसमें तनिक भी संदेह नहीं है| इसके पूर्व भी पूo महाराज के हाथ का लिखा “राम राम” उनकी अनुपस्थिति में प्राप्त हो चुका है|

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