‘समर्थ गुरु-समर्पित शिष्य’
बिनु गुरु भवनिधि तरै न कोई|
जौ विरंची शंकर सम होई|
मानस के प्रसंग में यह पंक्तियाँ अपना अर्थ गौरव पाठक के मानस पटल पर किस स्टार तक स्थापित करती हैं इसे तो मानस मर्मज्ञ ही जाने किन्तु प्रोo सुधीर मुखर्जी ‘दादा’ जी द्वारा लिखित पुस्तक “संत कृपामत” (By His Grace) इस सत्य तथ्य को जीवंत रूप में हम लोगों के समक्ष पूर्ण सफलता के साथ प्रस्तुत कर देती हैं|
गुरु की कृपा पात्रता के अनुरूप स्वयं झरने लगती है| उसके लिए आवश्यकता है, पूर्ण समर्पण और अचल विश्वास की|
दादा जी ने गुरुदेव के चरणों में जैसे ही आत्म निवेदन किया उन्हें लगा की अब अलग से जप, तप, जोग, और विराग की आवश्यकता नहीं रही| उनको पूर्ण विश्वास हो गया की गुरु कृपा से अपने उनके जीवन में संताप और पश्चाताप सदा के लिए विदा हो गए| गुरु कृपा ने दादा जी के सारे संकोच, तर्क, चिंता अभाव को अपनी सरलता की सरिता में प्रवाहित कर दिया तथा भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे गए इस श्लोक को सार्थक एवं सच्चा बोध करा दिया|
‘सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज
हम् त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षिस्यामि माशुच:’
गुरु की कृपा का पूर्ण आधार पाकर शिष्य को स्वयं कुछ करना शेष नहीं रह जाता है तब तो ‘कामादि दोष रहितं कुरु मानसं’ का सम्पूर्ण भाव आराध्य पर टिक जाता है| छोटे बालक का उत्तरदायित्व माता पर होता है और भक्त का सम्पूर्ण योगाक्षेम परमात्मा स्वयं वहन करने की घोषणा करते हैं
‘तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेम् वहाम्यहम्’|
प्रश्न उठता है की भक्त किस स्तर का समर्पण करता है वह गुरुदेव को संसार सागर से पार करने हेतु कर्णधार स्वीकारता है या अपनी भी उछल-कूद नाव में लगाया करता है| गुरुदेव पर पूर्ण भगवत तत्व आरोपित करने की सामर्थ्य शिष्य में हो तो जीवन में अभाव नहीं रह जाता है तथा संसार का अटाप उसे सहना नहीं पड़ता है|
वह सुख-दुःख की संज्ञा से ऊपर उठकर हानि-लाभ, मान-अपमान तथा शत्रु-मित्र की संक्रीर्ण परिधि से बाहर आ जाता है| तब गुरु-गोविन्द में अंतर दिखना बंद हो जाता है|
पूo बाबा नीव करौरी ने दादा जी को दक्षिणेश्वर में मन्त्र देकर उनकी आत्मा पर अपना सम्पूर्ण शक्तिपात करके उन्हें अपने सच्चे स्वरूप का पूर्ण बोध करा दिया तथा निज सुख की अनुभूति कराकर “मगन सुख अपने, सोच नहीं सपने” की स्थिति में ला दिया|
दादा जी का ह्रदय बाबा जी के उदात्त भाव से ऐसा रंग गया की दादा और दीदी के प्रेय, श्रेय, आराध्य और साध्य बाबा जी के वचन और संस्मरण मात्र रह गए इनके जीवन में मुदिता और सहजता उदारता तथा नि:प्रियता स्वत: जीवंत रूप में निवास करने लगी हैं|
कैंची धाम की पहली यात्रा :https://babaneemkaroli.in/%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%82%e0%a4%9a%e0%a5%80-%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%ae-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a4%be-%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%ae-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%b2%e0%a5%80/
दक्षिणेश्वर में ही तो स्वामी रामकृष्ण महाराज ने तार्किक विद्वान् युवक नरेन्द्र पर शक्तिपात करके उन्हें विवेकानंद के विमल सरोवर में स्नान कराकर उनके सारे तर्कों को विश्वास में परिणित कर दिया था| विवेकानंद से स्वामी जी ने कहा था “आ नरेन्द्र मैं तेरी प्रतीक्षा बहुत दिनों से कर रहा था|”
दादा मुख़र्जी का बारे में राजा राम शिवहरे जी के वचन :https://babaneemkaroli.in/dada-mukherjee-3/
कुछ ऐसा ही हुआ दादा जी के साथ प्रोo सुधीर मुखर्जी को अपनाने के लिए बाबा नीव करौरी अधीर हो उठे और इन्हें बुलाया और पवन-तनय हनुमान के रूप में ‘एहिसन हठि करिहऊँ पहिचानी’ के भाव से इन्हें बोध करा दिया की अब तुम अनाथ नहीं हो|
परमात्मा की कृपा का अधिकारी साधक नहीं, समर्पण कर्ता होता है|
हनुमान जी ने विभीषण से कहा ‘चिंता छोड़ो साधन का मोह त्यागो और मुझे देखो| ‘मेरे पास न मंदिर है ना माला है न रामायुध अंकन है और न नाम जप का कोई क्रम है किन्तु ‘मोहूं पर रघुवीर कीन्हि कृपा’|
हनुमान जी के शरीर पर कपिश रंग के बाल हैं तो नीव करौरी बाबा रोयेदार कम्बल ओढ़कर उसकी क्षतिपूर्ति करते हैं|
अपने भक्तों को एक दिन उन्होंने आदेश दिया, “सुन्दर काण्ड” पढो किसी ने पुछा कहाँ से| बाबा जी ने कहा “जब मैं लंका जला रहा था|” एक दिन कोई अहंकारी साधू के पास बाबा जी पहुँच गए और उसके चिढ़ने के बाद भी वहीँ रह गए| उस साधू ने कुछ मिठाइयाँ तैयार किया और यह कहकर बाहर चला गया की इसकी रखवाली करना|
जब सक्सेना जी को नीम करोली बाबा ने लीला दिखाई :https://babaneemkaroli.in/%e0%a4%b8%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b8%e0%a5%87%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%9c%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%8b-%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%ae-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%ac%e0%a4%be/
उसके जाने के बाद बाबा जी लगभग सभी मिठाईयाँ खा गए| लौटकर उसने जब पूछ मिठाईयाँ क्या हो गई| बाबा जी ने सहज भाव से कहा “भूख लगी थी तो खा गए” स्मरण हो आया हनुमान द्वारा रावण को दिया गया उत्तर “फल खायऊँ प्रभु लागी भूखा|” लंका जलते समय सब कुछ जला कर हनुमान जी का एक भी बाल नहीं जला| बाबा तपती हुई धूप में कभी-कभी आठ-आठ कम्बल ओढ़कर आनंद मग्न रहते थे तो कभी केवल कमर तक धोती पहन कर नग्न शरीर माघ-पूष की रात्रि में मैदान में बैठे रहते थे| कम्बल उनका सहायक नहीं स्वरुप का एक अभिन्न अंग था|
बाबा जी एक बार दादा जी के साथ किसी पहाड़ी पर दर्शन करने जा रहे थे| शरीर भारी था| दादा जी डांडी वालों को बुलाया और बाबा जी को ऊपर ले चलने को कहा उन लोगों न्र आठ रूपए माँगा|
दादा जी छः रूपए देने को राजी हुए| उनमें से एक ने कहा| ना बाबा, आठ से कम नहीं| भारी कितना है| दादा जी के मुख से निकल गया| देखने में भारी लगते हैं| वजन नहीं है हलके हैं| बाबा मन ही मन मुस्कुराए| उन लोगों ने बाबा जी को डांडी में रखा और ऊपर पहुंचा दिया| जब तक दादा जी पैसे निकालते ढोने वाले नीचे उतर चुके थे|
दादा ने कहा “वे पैसा लिए बिना चले किधर गए|” बाबा जी ने उत्तर दिया “उन्होंने सोचा, इतनी हलकी सवारी की क्या मजदूरी ली जाय”, वास्तविकता यह थी कि बाबा जी कागज़ की तरह हलके हो गए थे| स्मरण आयी पंक्तियाँ “देह विशाल परम हरुआइ| मंदिर टे मंदिर चढ़ी ढाई||” एक बार कानपुर के पास पनकी में हनुमान जी का उत्सव मनाया जाना था| वहां से निश्चित तिथि के लिए बाबा जी को निमंत्रित किया गया| बाबा जी ने कहा चलो देखेंगे| कार्यक्रम के दिन चर्चलेन, इलाहाबाद में दादा जी के मकान में एक कमरे में विश्राम कर रहे थे तथा भक्त मण्डली से आवृत्त थे|
जब दादा मुख़र्जी के चरण लाल हो जाया करते थे :https://babaneemkaroli.in/dada-mukherjee-2/
कार्य के ठीक 10 मिनट पूर्व बाबा जी ने कहा “दादा सबसे कहो कमरे से बाहर हो जाएँ| हम थोडा सो लें| बाहर से ताला बंद कर देना| जब हम बुलावें तब खोलना|” लगभग 2 घंटे बाद जब बाबा जी आवाज लगाई| “दादा खोलो”| कमरा खुला| भक्तों का प्रवेश आरम्भ हुआ| कुछ दिन बाद जब पनकी से भक्तगण प्रसाद लेकर आये और बाबा जी से पूछा “आप कब एकाएक गायब हो गए| आपका प्रसाद वहीँ पड़ा रह गया|” तब चर्चलेन के लोग जान पाए की बाबा वायु तत्व में विलीन होकर सूक्ष्म शरीर से पनकी चले गए थे| जब दादा जी ने पूछ ताला तो बाहर से बंद था| बाबा जी ने कहा ताला-वाला सब स्थूल पदार्थ की रक्षा के लिए हैं, सूक्ष्म प्राण को बाधित नहीं करता “दादा”| इस तरह की अनके लीलाएं बाबा करते रहते हैं| उन सबकी महिमा का वर्णन कैसे करूँ क्योंकि
विधि हरिहर कोबिद बानी| कहत साधु साधु महिमा सकुचानी|
जिन पर बाबा जी की कृपा हुई है वे सब उन्हें रामदूत हनुमान का ही स्वरुप मानते हैं| दादा जी ने बड़ी ही अनोखी शैली में महाराज जी के स्वरुप को प्रकट किया है अपने लेखों और a=वक्तव्यों में| जो लोग बाबा तथा श्रद्धेय दादा जी के दर्शन के पुण्य से लाभान्वित हो चुके होंगे उनके लिए ‘उपासना’ का अंक पुनः उसी रस में निमग्न करने का हेतु बनेगी और जो लोग साक्षात व स्थूल दर्शन का लाभ न पा सकें हैं उन्हें उस दिव्य धरातल पर जहाँ की सभी सिद्ध विभूतियाँ विचरण करती रहती हैं, मिलन का साधन भी सिद्ध होगी ‘उपासना’|
वन्दौ संत समान चित, हित-अनहित नही कोऊ|
अंजलि गति सुभ सुमन जिमि, सम सुगन्ध कर दोऊ||
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