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दादा मुख़र्जी चर्च लेन अलाहाबाद
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दादा मुख़र्जी के बारे में राजा राम शिवहरे जी के वचन

‘दादा जी’

श्रद्धेय सुधीर कुमार मुकर्जी जिन्हें हम लोग – दादाजी अथवा ‘मुकर्जी दादा’  अथवा “दादा मुख़र्जी”  कहते हैं| इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के आचार्य थे| लगभग अर्धशती पूर्व सन 1952 में मुझे भी उनसे ‘अर्थशास्त्र’ पढने का सौभाग्य हुआ| वे पाठ्य विषय को बहुत मेहनत से पढ़ते और छात्रों को समझाने और स्पष्ट करने में बहुत एकाग्र और तल्लीन रहते|

उस युग में विद्यार्थीगण कक्षा में श्रृद्धा और जिज्ञासा के साथ पढ़ते थे| दादा जी शांत, सौम्य, सरल स्वाभाव के थे और अपने कार्य में रूचि लेते थे| विश्वविद्यालय से 1975 में उन्होंने अवकाश ग्रहण किया|

संयोगवश छात्र जीवन समाप्त होने के पश्चात मुझे दादा मुख़र्जी जी के अधिक निकट आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ| 1958 में दादा जी अपने नव निर्मित बंगले में (4 चर्चलेन) रहने लगे| उसी वर्ष मैं भी विश्वविद्यालय के ही निकट नव निर्मित कालोनी 19  चर्चलेन के मकान में रहने लगा और वकालत सम्बन्धी जीवन प्रारम्भ किया|

मेरा मकान दादा मुख़र्जी जी के मकान से 300-400 कदम की दूरी पर था| हाईकोर्ट जाने पर दादा जी का बंगला रास्ते पर ही पड़ता था|

दादा जी के यहाँ ही 1966 के महाकुम्भ के अवसर पर मुझे परम विख्यात अद्भुत संत बाबा नीव करौरी जी महाराज के दर्शन का सौभाग्य हुआ| बाबा जी जिन्हें हम प्राय: ‘महाराज जी’ कहते थे, सर्दियों में प्रतिवर्ष आकर ‘दादा मुख़र्जी’ के पास तीन-चार माह रहते थे|

हमलोग भी महाराज जी की महान कृपा से प्राय: शाम को दादा जी के यहाँ पहुँच कर महाराज जी के दर्शन, सत्संग व अनेक भक्तों से भेंट का लाभ आनंद प्राप्त करते थे| दादाजी, महाराज जी की सेवा में निरंतर इस प्रकार लगे रहते थे कि कहना चाहिए की महाराज जी के आदेश पालन के लिए तैयार एक पैर के बल खड़े रहते थे| आने वाले भक्तों को प्रसाद बाँटना भी दादा जी का कार्य था|

एक बार सन 1970 में मेरे जूनियर साथी श्री एमo पीo सिन्हा एडवोकेट, भी दर्शन को गए| वैसे तो महाराज जी नवांगतुक को दो-चार मिनट में ही विदा कर देते थे| उस दिन महाराज जी ने हमलोगों को लगभग 10 बजे रात तक सत्संग का सौभाग्य दिया| उनके पास बैठने पर कोई ऊबता नहीं बल्कि लगता था की और बैठने को मिल जाए|

पर सिन्हा भीतर-भीतर घर जाने को छटपटा रहे थे आशंका थी की अल्लापुर पर पहुँचने पर देर होने पर उन्हें बिना भोजन के ही रह जाना पड़ेगा| उनके सम्बन्धी द्वारा जिनके यहाँ वे रहते थे उनकी अनुपस्थिति में खाना बना रखने का सवाल ही नहीं था| चलते समय ‘दादा जी’ ने सबको प्रसाद दिया|

सिन्हा को भी दिया|महाराज जी ने कहा और दो, दिया गया, कहा और दो, दिया गया| फिर कहा और दो इस प्रकार लगभग आधा किलो मिठाई सिन्हा को प्रसाद में दिलाई| घर में वास्तव में उनके लिए खाना नहीं बना था| पर महाराज जी द्वारा दिलाया गया प्रसाद सिन्हा को क्षुधा तृप्ति के लिए पूरा था|

सिन्हा आज भी उस समय संत की, उस कृपा और महिमा को स्मरण कर तथा दादा जी की आज्ञा पालन की रुचि याद कर आनंद विभोर हो उठते हैं|

1973 में महाराज जी के पार्थिव शरीर से विलग हो परम सत्ता या चेतना में समाहित होने पर दादा जी पूर्णतः महाराज जी में ही समाये रहने लगे|

उन्हीं का स्मरण-चिंतन करते, उन्हीं की चर्चा करते, सुनते, उनके भक्तों से ही संपर्क या बैठक करते थे| देश-विदेश के अनेक भक्त समय-समय पर आते रहते थे| तमाम तो दादा जी के यहाँ आकर ठहरते थे| सभी को दादा जी के यहाँ सुविधा व प्रसाद मिलता| महाराज जी के समय 1992 में तो दादा जी के यहाँ एक बार लगभग 70-80 अतिथि ठहरे थे| दादा जी पूरे भाव के साथ सभी के नाश्ता, चाय, भोजन की व्यवस्था करते और ऐसा करके अति आनंद का अनुभव करते थे|

वर्तमान युग के उस महान त्रिकालदर्शी सर्व समर्थ संत बाबा नीब करोरी जी महाराज की ही कृपा थी की उन्होंने जब दादा जी बीo एo के छात्र थे— कलकत्ता में गंगा तीर गुरुमंत्र दिया था| उस समय दादा जी की धर्म के प्रति कोई रूचि नहीं थी, वे कम्युनिस्ट विचारधारा के थे तथा गुरु मन्त्र उनकी इच्छा न होते हए में भी महाराज जी ने दिया था|

धर्म के प्रति रूचि व आदर तथा महाराज जी के प्रति परम श्रृद्धा का भाव दादा जी में धीरे-धीरे महाराज जी के पुराने भक्तों के माध्यम से बढ़ा, पुष्ट हुआ और महाराज जी के साथ रहने से वह परिपक्व हो गया|

विदेशी भक्तों के विशेष आग्रह और अनुरोध पर दादा जी 1981 व 1985 में दो बार अमरीका भी गए| वहां उनका अत्यधिक प्रेम व आदर के साथ स्वागत हुआ| वहां पहुँचते ही माला, शंख, ध्वनि, घंटा ध्वनि आदि के साथ एअरपोर्ट में ही स्वागत हुआ| भिन्न-भिन्न नगरों, स्थानों में उनके प्रोग्राम रखे गए|

विख्यात विद्वानों से भेंट हुई एवं लेक्चर भी दिए| भक्त लोग दादा जी को अनेक प्रकार से लाभान्वित करना चाहते थे| पर सदा से ही संत जैसा सहज-सरल सादा जीवन जीने वाले दादा जी ने कुछ भी स्वीकार करने या ले जाने से मना कर दिया| विवश हो भक्तों ने कुछ पुस्तकें व चित्र ही उनसे स्वीकार कराके संतोष का अनुभव किया|

महाराज जी के सामने चलने वाले सत्संग की परंपरा बनाये रखने का दादा जी ने रास्ता निकाला| 1974 से निरंतर 14 वर्ष तक, 1988 तक, दादा जी के यहाँ मंगलवार को शाम 7 बजे से 9 बजे तक सत्संग कीर्तन भजन का प्रोग्राम रहने लगा|

उसमे लगभग 40-50 भक्तों की उपस्थिति रहती, जिसमें बालक, वृद्ध सभी रहते| हारमोनियम, मजीरा, करताल आदि के योग से वह समय बड़े आनंद का होता| हम लोग महाराज जी की कृपा से 1973 में निर्मित न्याय मार्ग के अपने मकान से लगभग 6 किलोमीटर से जाते और आनान्दलाभ करते|

दादा जी जैसे महाराज जी की उपस्थिति में उनके तखत के बगल में खड़े रहते थे वैसे ही उसी तरह कीर्तन के समय खड़े रहते| कीर्तन भवन फूलों, मालाओं, अगरबत्ती की सुगन्ध से दिव्य वातावरण से संचारित रहता| अंत में दादा जी सभी को प्रसाद बांटते|

प्रसाद में प्राय: दो मीठा और दो नमकीन रखते| दादा जी से बाद में मालूम हुआ की वो कीर्तन के समय उन्हें यही प्रतीत होता था की महाराज जी उपस्थित हैं और कीर्तन सुन रहे हैं|

महाराज जी ने अगणित लोगों का कल्याण भी किया, विपत्ति में उनकी रक्षा की तथा धर्म-पथ में लगाया| उन कुछ भक्तों के संपर्क में आने पर बाबाजी दादाजी के लिए सब कुछ हो गए|

तुलाराम शाह नैनीताल के सफल संपन्न वकील जो बाबा जी का प्रारम्भ में मजाक ही उड़ाते थे, अंत में परम भक्त बन गए थे| उन्होंने महाराज जी के साथ भारत में अनेको स्थानों में भ्रमणकर तीर्थयात्रा कर समझा था तथादादा जी को बताया था की महाराज जी वर्तमान युग के महानतम संत हैं|

इसी प्रकार ‘जीवन दादा’ भी मह्राराज जी से प्रारम्भ में चिढ़ते थे तो अवांछित जी रहते थे| अंत में उनके ऐसे भक्त व पुजारी बने हैं कि उनकी कृपा की चर्चा करते ही उनके आंसू  टपकने लग जाते हैं|

दादा जी ने स्वयं भिन्न-भिन्न अवसरों पर महाराज जी के सर्व समर्थ शक्तिवान स्वरुप का अनुभाव किया| महाराज जी के साथ सशरीर रहने न रहने का कोई अंतर नहीं है यह भक्तों का अनुभव है|

विदेशी भक्तों के विशेष प्रयास से दादा जी ने महाराज जी के विषय में अपने अनुभव तथा भक्तों के विषय में लिखा| वे पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए हैं| वे हैं By His Grace (संत कृपामत) The near and the Dead (पारस स्पर्श) दोनों ही पुस्तकें बहुत रोचक और कल्याणकारी हैं|

महाराज जी के शरीर छोड़ने के बाद दादाजी महाराज जी के विश्राम कक्ष में उनके तख़्त पर प्रतिदिन पुष्प सजाने लगे जो अत्याधिक चित्ताकर्षक होती थी|

अनेक प्रकार को पुष्पों को काट-छांट कर उन्हें इस प्रकार से सजाते की रामनाम लिख जाता एवं चरण भी बन जाते|

दीदी जी (दादा जी की धर्मपत्नी) भी प्रतिदिन संध्या व रात्रि में उन फूलों की सजावट को पेंटिंग के माध्यम से स्थायी रूप देती रहीं, इस समय तक दर्जनों एल्बम पुष्पांजलि की पेंटिंग के बन चुके हैं|

इस कार्य में लम्बा समय प्रतिदिन दादा एवं दीदी को लगता रहा| इस प्रकार महाराज जी के प्रति श्रृद्धा व भक्ति प्रगाढ़तर होते रहे|

वर्ष में चार बार दादा जी भण्डारा का भी आयोजन करते थे| जनवरी में गुरुपूर्णिमा पर तथा इसी प्रकार अन्य दो अवसरों पर शाम को सुन्दरकाण्ड का पाठ होता तथा भक्त प्रसाद पाते| दादाजी सभी को रसगुल्ला, गुलाबजामुन खिलाने में रूचि लेते थे|

महाराज जी की आराधना करते-करते दादा जी महाराज जी ही हो गए थे| मेरे मित्र श्री इंद्र नारायण मिश्र एडवोकेट कभी-कभी दादा जी के यहाँ मेरे साथ या स्वयं ही जाते थे| वे कहते थे की हम दादा जी को देखते हैं तो हमें महाराज जी ही दिखाई देते हैं| दादाजी में महाराज जी स्वयं वास कर रहे हैं|

ऐसे पुण्यात्मा दादा जी ने महाराज जी की हनुमान की तरह सतत सेवा करके सितम्बर 1997 में इस पार्थिव शरीर से विदा ली| ऐसे गृहस्थ संत के सत्संग का लाभ हम सभी को मिला यह हमारा सौभाग्य है|

कमला दीदी को हुए हनुमानजी के दर्शन :https://babaneemkaroli.in/darshan-of-lord-hanuman-ji/

dada Mukherjee and Kamla didi
dada Mukherjee and Kamla didi

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