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नीम करोली बाबा ने दिया सम्पन्नता का वरदान
Posted in: नीम करोली बाबा के चमत्कार

नीम करोली बाबा ने दिया सम्पन्नता का वरदान

सिपाहीधारा (नैनीताल) के श्री रमेशचन्द्र पाण्डेय के दिन गर्दिश में बीत रहे थे। आठ-नौ व्यक्तियों का परिवार किसी तरह पल रहा था।

लेकिन घर में जो कुछ भी जुड़ता उसे लेकर उनकी बड़ी बेटी शान्ता अपनी माँ के साथ पहुँच जाती बजरंगगढ़ और बाबा उसके द्वारा लाए हुए भोग को बड़े ही प्यार से ग्रहण करते।

विनय चालीसा:https://babaneemkaroli.in/vinay-chalisa/

शान्ताजी एक दिन की घटना सुनाती हैं-एक दिन मैं जौ, चना और गेहूँ के मिश्रित आटे की रोटियाँ और राई का साग लेकर महाराज जी के पास गई। साथ में मेरी माँ भी थी। उसी समय नैनीताल के एक सम्पन्न व्यक्ति टिफिनदान में स्वादिष्ट व्यंजन लेकर आए थे। उनकी बहू चाँदी की कटोरियों में वे व्यंजन निकाल कर रख रही थीं।

सभी व्यंजन निकल गए तो चाँदी की थाल में सजाया। यह देखकर मैंने संकोच के मारेह अपना कटोरदान छिपा लिया जिसमें रोटियाँ और साग रखा हुआ था लेकिन महाराज जी से भला क्या छिप सकता था ? वह बोले, “क्या लाई है ?”

“कुछ नहीं महाराज ।” मैंने कहा।

“देती क्यों नहीं, जो लाई है!” महाराज जी ने डाँट कर कहा।

नीम करोली बाबा ने बताया राम नाम महातम्य:https://babaneemkaroli.in/the-improtance-of-the-name-rama/

मैंने अपना कटोरदान सहमते हुए बाबा की ओर बढ़ा दिया।

महाराज जी ने जब कटोरदान खोला तो उस सम्पन्न व्यक्ति ने मुँह बिचका कर कहा, “हु! ये खाएँगे महाराज!” और फिर अपनी बहू की ओर देखते हुए बोले, “याली क्यों नहीं देती महाराज को ?” और बहू ने थाल आगे बढ़ा दिया।

उस सज्जन की बातें सुनकर मैं रुआँसी हो गई। मुझे काफी ठेस लगी। मैंने सिर नीचा करके आँसू पलकों में छिपा लिए।

लेकिन महाराज जी तो अन्तर्यामी थे। उन्होंने उस धनी व्यक्ति के अहंकार और मेरे आहत मन को समझ लिया था।

दादा मुख़र्जी के हनुमान जी के अनुभव :https://babaneemkaroli.in/%e0%a4%a6%e0%a4%be%e0%a4%a6%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%81%e0%a5%99%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9c%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a4%a8%e0%a5%81%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%9c%e0%a5%80/

महाराज जी ने उनकी याल कुछ दूर खिसका दी और रोटी-साग खाना प्रारम्भ कर दिया।

यह देखकर मैं भाव-विभोर हो गई। तभी बाबाजी ने उन महोदय की भावना में लगी चोट पर भी मरहम लगा दिया- उनके थाल से थोड़ा भोग ग्रहण कर

लेकिन जब तलमखाना और मेवों से बनी खीर का नम्बर आया तो महाराज जी ने उसमें से थोड़ा सा चख कर कटोरी मेरी ओर बढ़ा दी और कहा, “ले, इसे तू खा ले।” मेरे काटो तो खून नहीं।

मेरे संकोच को देखते हुए बाबा डाँटते हुए बोले, “खाती क्यों नहीं ?”

एक तरफ बाबा की डॉट और दूसरी तरफ इस घटना से मुरझाए हुए उस सज्जन के चेहरे के बीच मैंने रोते हुए एक ही साँस में खीर की कटोरी खाली कर दी।

फिर बाबा ने आशीर्वाद दिया, “जाओ, अब तुम्हारे घर में किसी भी चीज की कमी नहीं रहेगी।”

उक्त आशीर्वाद की सार्थकता के लिए महाराज जी ने स्थायी तौर पर व्यवस्था कर दी कि “जब हम यहाँ नहीं रहें तो रघुनाथजी को (गढ़ में स्थापित रघुनाथ मन्दिर में) नित्य भोग लगाना रोटी-सब्जी का।”

नीम करोली बाबा के चमत्कार :https://babaneemkaroli.in/%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%ae-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%9a%e0%a4%ae%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b0/

यह कार्यक्रम एक माह तक चला जिसके मध्य महाराज जी की लीला ने एक विचित्र मोड़ ले लिया पर इसकी जो अनुभूति मुझे और मेरी बहिन भारती को होती रही, उसे हम अन्तिम दिन ही पूरी तरह ग्रहण कर पाए।

होता यह था कि जब हम कटोरदान में रोटी-सब्जी दिन के बारह बजे के भोग के पूर्व रघुनाथ मन्दिर को ले जाते थे तो कटोरदान का वजन उन चन्द रोटियों और सब्जी के वजन के अनुसार हल्का ही रहता किन्तु लौटते समय कटोरदान अप्रत्याशित रूप से भारी हो जाता।

हम बहिनें उसे बारी-बारी से ढोतीं। हम यही समझते रहे कि पहले सिपाहीधारा (हमारे घर) से सड़क तक की खड़ी चढ़ाई और फिर एक मील बाद गढ़ की चढ़ाई एवं लौटने की थकान तथा भूख के कारण कटोरदान भारी लगता है।

तब इस कटोरदान की रोटी-सब्जी भी पूरे परिवार के लिए पर्याप्त हो जाती थी।

किन्तु बाबा की इस लीला के अन्तिम चरण ने हमारी आँखें खोल दी। तीसवें दिन जाते-जाते हमें देर हो चुकी थी पर मार्ग में ही कटोरदान अन्य दिनों की अपेक्षा और भारी हो गया।

जब हम मन्दिर पहुँचे तो वह भोग-आरती के बाद बन्द हो बहुत दुःख हुआ। तब मौनी हरदा बाबा ने स्लेट पर लिखकर चुका था। हमें बताया कि “भोग लग चुका है। अब पूर्ण हो गया है।

कल से मत लाना।” पहले तो हमारे दिमाग में यही विचार आया कि भोग लग चुका है, हमें ही देर हो गई। पर अपने लाला महाप्रभु अनबूझे कैसे छोड़ सकते थे ? तभी हमारे दिमाग में कटोरदान का लौटती बार नित्य भारी हो जाना और आते वक्त ही आधे मार्ग से उसका और भी वजनी हो जाने का रहस्य कौंध गया।

आज तो रघुनाथ जी ने (अर्थात् महाराज जी ने, क्योंकि हम तो भाव में महाराज जी के लिए ही भोग ले जाते थे) मार्ग ही में भोग स्वीकार कर लिया था (तभी तो कटोरदान पूर्व में ही भारी हो गया था)। लीला का सार मन में समाते ही हमारे आँसू फूट पड़े दयानिधान की इस कृपा पर ।

कहना आवश्यक नहीं कि तभी से हमारे घर से सब प्रकार का अभाव दूर होता चला गया।

भावपूर्ण अर्पण

सर्वत्र सदा घर की जानो, रूखो सूखो ही नित खानो ।

सबरी के बेर, सुदामा के (पत्नी द्वारा मधुकरी कर के अर्पित) तंदुल तथा विदुर के साग को भगवान ने कितना अधिक महत्व दिया नाना प्रकार के फल-फूलों एवं अपने तथा दुर्योधन के महलों के छप्पन भोगों की तुलना में केवल भावपूर्ण अर्पण के ही कारण । बाबा जी महाराज की भी न मालूम कितनी ऐसी लीलाएं हैं जहाँ उन्होंने ऐसे भावपूर्ण अर्पण को राजसी भोगों की अपेक्षा अधिक प्रेम से ग्रहण किया। भगवान भाव खाता है’ – आप पढ़ ही चुके हैं।

सिपाहीधारा (नैनीताल) के श्री रमेश चन्द्र पाण्डे जी अपने प्राणियों का परिवार लिये (तब) कुछ गर्दिश के चक्कर में पड़े थे । परन्तु फिर भी घर में जो कुछ भी उपलब्ध होता, उसी को लेकर बड़ी बेटी शान्ता और उसकी माँ पहुँच जाते बजरंगगढ़ बाबा जी के पास, और बाबा जी भी “क्या लाई है ?” पूछकर ग्रहण कर लेते उसे उसी वक्त बड़े प्रेम से समृद्ध भक्तों द्वारा लाये गये नाना प्रकार के भोग पाते हुए भी । शान्ता जी ने इस संदर्भ में अपने अनुभव सुनाये –

एक दिन मैं इसी प्रकार जौ-चने-गेहूँ के मिश्रित आटे की रोटियों तथा लाई (राई) की सब्जी लेकर जब महाराज जी के पास पहुँची तो देखा कि नैनीताल के एक सम्पन्न भक्त महोदय (सपरिवार) एक बड़े से टिफनदान में बाबा जी के लिये भोग लेकर पहुँच गये। उनकी बहू ने मेरे सामने चाँदी की थाली एवं कटोरियों में वह भोग परोसकर महाराज जी के सामने रखना प्रारम्भ कर दिया। यह सब देखकर मैंने अत्यन्त संकोच से अपनी रोटी-सब्जी का कटोरदान चुपचाप छिपा लिया, पर अन्तर्यामी ने मुझसे पूछ ही लिया रोज की तरह, “क्या लाई है ?” मैंने कह दिया, “कुछ नहीं महाराज ।” तब बाबा जी ने डॉटकर कहा, “देती क्यों नहीं जो लाई है ? सहमकर मैंने वह कटोरदान बाबा जी की तरफ झिझकते हुए बढ़ा दिया, पर मन ही मन रुदन का उच्छवास उमड़ पड़ा मेरे अन्तर में उन महोदय के उस भोग के समक्ष अपना रोटी-सब्जी का कटोरदान देखकर कटोरदान खुला तो वे महोदय कुछ रोषपूर्ण शब्दों में बोल उठे, है! ये खायेंगे महाराज ? और फिर अपनी बहू की तरफ देख बोले, “थाली क्यों नहीं देती महाराज को ?” और बहू ने थाल आगे बढ़ा दिया। अन्तर में वैसे ही भरी थी मैं उन सज्जन की बात सुनकर आँखे बरस पढ़ी मेरी और मैंने सिर नीचे कर छिपा लिया उन्हें । पर अन्तर्यामी तो सब जान ही गये मेरी दशा और साथ ही उन महोदय के अहंकार को भी (यद्यपि मुझे मालूम था कि उनका महाराज जी के प्रति प्रेम मेरे प्रेम से कई गुना अधिक था और कि वे जो कुछ कर रहे थे प्रेमवश ही) महाराज जी ने उनका थाल कुछ दूर हटा मेरी रोटी-सब्जी पाना प्रारम्भ कर दिया !! यह देखकर मैं और भी टूट-बिफर गई। तभी बाबा जी ने उन महोदय की भावना में लगी चोट पर भी मरहम लगा दिया. से थोड़ा थोड़ा भोग ग्रहण कर । उनके बाल

पर जब सबसे मधुर व्यंजन मेवों से भरी तालमखाने की खीर – का नम्बर आया तो महाराज जी ने उसमें से थोड़ा पाकर कटोरी मेरी तरफ बढ़ा दी !! “ले, इसे तू खा ले ।” मेरे काटो तो खून नहीं। मेरे संकोच को देखते हुए बाबा जी डॉटकर बोले, “खाती क्यों नहीं ? एक तरफ बाबा जी की डॉट और दूसरी ओर इस घटना से उन भक्त सज्जन के मुँह पर उतार-चढ़ाव – इसी माहौल में मैंने रोते हुए वह खीर एक सौंस में गटक ली !! उसमें बिना किसी प्रकार का स्वाद पाए

उसके बाद परम आशीर्वाद मिला, “जाओ अब तुम्हारे घर में किसी चीज की कमी नहीं रहेगी !!”

महाराज

उक्त आशीर्वाद की सार्थकता के लिये महाराज जी ने मेरे लिये व्यवस्था कर दी कि “जब हम नहीं रहें यहाँ तो रघुनाथ जी को (गढ़ में स्थापित रघुनाथ मंदिर में) नित्य भोग लगाना रोटी-सब्जी का ।” एक माह तक यह कार्यक्रम चला जिसके मध्य महाराज जी की लीला ने एक विचित्र मोड़ ले लिया पर इसकी जो अनुभूति मुझे और मेरी बहिन भारती को होती रही, उसे हम अन्तिम दिन ही पूरी तरह ग्रहण कर पाये। होता यह था कि जब हम कटोरदान में रोटी सब्जी दिन के बारह बजे के भोग के पूर्व रघुनाथ मंदिर को ले जाती थीं तो कटोरदान का वजन उन चन्द रोटियों और सब्जी के वजन के अनुसार हल्का ही रहता । परन्तु लौटती बेर कटोरदान अप्रत्याशित रूप से भारी हो उठता । हम बहनों को तो उसे बारी बारी से ढोना पड़ता था। हम यही समझते रहे कि पहिले सिपाहीधारा (हमारे घर) से सड़क तक की खड़ी चढाई और फिर एक मील बाद गढ़ की चढ़ाई एवं लौटने की थकान तथा भूख के कारण कटोरदान भारी लगता है। (और तब इस कटोरदान की रोटी-सब्जी भी तो पूरे परिवार के लिये यथेष्ट हो जाती थी !!)

परन्तु बाबा जी महाराज की इस लीला के अन्तिम चरण ने हमारी आँखें खोल दीं। तीसवें दिन जाते जाते हमें देर हो चुकी थी पर मार्ग में ही कटोरदान अन्य दिनों की अपेक्षा और भी अधिक भारी हो गया !! और जब हम पहुँचे तो भोग-आरती के बाद रघुनाथ मंदिर बन्द हो चुका था। हमें बहुत दुःख हो गया। तब मौनी हरदा बाबा ने स्लेट में लिखकर बताया कि, “भोग लग चुका है। अब पूर्ण हो गया है। कल से मत लाना ।” पहले तो हमारे दिमाग में केवल यही आया कि भोग लग चुका है, हमें ही देर हो गई। पर अपनी लीला महाप्रभु अनबूझे कैसे छोड़ सकते थे ? तभी हमारे मस्तिष्क में ‘कटोरदान का लौटती बार नित्य भारी हो जाना और आज आते वक्त ही आधे मार्ग से ही उसका और भी वजनी हो जाने का रहस्य कौंध गया !! आज तो रघुनाथ जी ने (अर्थात महाराज जी ने, क्योंकि हम तो भाव में महाराज जी के लिये ही भोग ले जाते थे) मार्ग ही में भोग स्वीकार कर लिया था !! (तभी तो कटोरदान पूर्व में ही भारी हो गया था !!) लीला का सार मन में समाते ही हमारे आँसू फूट पड़े दयानिधान की इस कृपा पर ।

कहना आवश्यक नहीं कि तभी से हमारे घर से सब प्रकार का अभाव दूर होता चला गया ।

 महाराज

इन्हीं शान्ता जी की माँ जब भूमियाधार बाबा जी महाराज के दर्शनों को आती थीं तो कुछ न कुछ भोग प्रसाद अवश्य लाती थीं, और यह भोग प्रसाद होता था घर में उस दिन तैयार दाल, चावल, सब्जी, रोटी या कोई कुमाऊँनी व्यंजन । उसी को ये एक ही कटोरदान-नुमा बर्तन में भरकर ले आती थीं । कभी अर्थाभाव अथवा कभी सवारी गाड़ी के न मिल पाने के कारण पैदल ही ८-१० किमी० चलकर भी आ जाती थीं ।

कि व्रत के कारण थकी माँदी वे मार्ग में एक शिला पर बैठ गई । और एक दिन ऐसे ही कारणों से वे पैदल आ रही थीं भूमियाधार को वहीं उनके मन में विचार उठने लगे कि, “क्या ले जा रही हूँ मैं महाराज जी के लिये ? कितना कितना, कैसा कैसा दिव्य भोग-प्रसाद लाती हैं अन्य माझ्याँ। सबके सामने कैसे दूँगी अपना ये भोग मैं महाराज जी को ?” और फिर कुछ देर बाद चल दी भूमियाधार को । दर्शनों के बाद जब कुछ एकान्त-सा मिला तो बाबा जी को अर्पण करने के लिये जो कटोरदान खोला तो देखा कि वहाँ कुछ भी न था !! बहुत परेशान हो गईं मन में कि आखिर प्रसाद गया कहाँ ? न तो कटोरदान कहीं खुला और न कहीं उलटा । तभी महाराज जी मुस्कुरा कर बोल उठे, “दुःखी क्यों होती है ? हमने तेरा प्रसाद वहीं पा लिया था जहाँ तू शिला के ऊपर बैठी थी !!”

गरीब नेवाज बाबा जी की दीनवत्सलता !!

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