दादा मुख़र्जी के हनुमान जी (नीम करोली बाबा ) के साथ अनुभव
अमेरिका फ्लोरिडा में व्याख्यान
श्री हनुमान
“उनके जीवन का अंतिम गुरुपूर्णमा पर्व 20 जुलाई १९९७ को था। पूर्व की भांति इस बार भी भक्तों की भीड़ थी। पूज्य दादा जी का स्वास्थ्य अत्यंत बिगड़ चुका था।इस पुण्य अवसर पर जब सभी भक्तगण पूज्य दादा जी के चारों ओर उनसे कुछ सुनने की लालसा लेकर बैठे तो उनसे चुप न रह गया और उन्होंने अपने कुछ अविस्मरणीय विचार सबके सम्मुख रखा। उनके द्वारा दिया गया यह अंतिम संदेश भक्तों ने टेप कर लिया जो उनके अंतिम शब्द के रूप में सुरक्षित हैं। उसी समय श्री दादा जी ने यइच्छा प्रकट किया था कि आज के विचार महाराज जी द्वारा दिया गया एक‘महामंत्र’ हैं, जो सभी भक्तों में पहुंचाया जाना चाहिए। इस महामंत्र के द्वारा सभी व्यक्तियों की सभी मनोकामनाओ की पूर्ति होती है। अतः उन्हीं की इच्छानुसार श्री नींव करोरी सत्संग, ४ चार्चलेन द्वारा सर्वहिताय इसका प्रकाशन किया जा रहा है।
इसके अतिरिक्त पुस्तिका के अन्य अंतिम पृष्ठो में श्री हनुमान जी के विषय में पूज्य श्री दादा जी द्वारा व्यक्त किए गए वे विचार हैं जो उन्होंने अपने १९८५ के अमेरिका यात्रा के समय फ्लोरिडा (अमेरिका) में व्यक्त किए थे। अमेरिका के सभी भक्तों ने विशेषकर श्री विली वाइराम जो उस समय आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्राचार्य थे और बाद में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में नियुक्ति पाकर चले गए ने दादा से श्री हनुमान जी के विषय में भाषण के लिए आग्रह किया था। पूज्य दादा जी ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए यह कहा था की मैंने श्री वाल्मीकि रामायण और श्री रामचरितमानस का कभीआद्धोपंत पाठ नहीं किया है और न तो मुझे हनुमान चालीसा ही स्मरण हैं। इस कारण श्री हनुमान के विषय में मेरी जानकारी पूर्ण नहीं है तो मैं भाषण कैसे कर सकता हूं? किन्तु जब विदेश के भक्तों का दबाव बढ़ा तो फिर वे उनका आग्रह टाल नहीं सके और यह कह कर की ‘‘यद्धपि मैंने हनुमान के बारे में पढ़ा नही हैं फिर भी हनुमान के साथ अवश्य रहा हूं।’’ अपनी स्वीकृती दे दी। उन्होंने अपना भाषण प्रारंभ किया। भाषण बड़ा मनोहारी और ऐतिहासिक था। भाषण देते समय उन्हें का ज्ञान तब हुआ जब पूरा हाल बहुत देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा। चिरस्मरणीय पूज्य श्री दादा जी का यह भाषण भी हम सबके लिए चिरस्मरणीय हो गया।
यह भाषण आंग्ल भाषा में था अतः भारतीय भक्तों के सुलभ संदर्भ हेतु पूज्य श्री ‘दादा’ के आज्ञानुसार इसका सुंदर हिंदी रूपांतरण श्री इंद्रेश पाण्डेय जी द्वारा परिश्रमपूर्वक अत्यल्प समय में किया गया।”
कुछ मित्रों ने मुझसे हनुमान के बारे में बोलने को कहा। मैं सोच रहा था कि आप लोग प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं। हनुमान जो भी है वह हनुमान चालीसा में दिया हुआ है। आप लोगों को हनुमान चालीसा केवल याद ही नहीं है अपितु आप लोग तो इसका नित्य सस्वर पाठ भी करते हैं।
मैं अपने विषय में क्या कहूँ, मैंने कभी हनुमान चालीसा नहीं पढ़ा है तथा न उसका गायन ही किया है। मैं आपके सामने हनुमान के बारे में बताने में अपने आपको अक्षम पा रहा हूँ।
फिर भी मैं बाबाजी और उनके भक्तों के साथ रहा हूँ। बाबाजी के भक्त कभी उनके पास बैठ कर हनुमान चालीसा का पाठ करते और कभी-कभी आश्रम के मन्दिर में बैठ कर । बाबाजी के भक्त प्राय: हनुमान जी के बारे में बात करते रहते थे। जिसे मैं कभी इच्छा या कभी अनिच्छा से सुनता रहता था।
नीम करोली बाबा ने आराम से यात्रा करवाई :Neem Karoli baba arranges a comfortable journey – Baba Neem Karoli
यदि मैने अनुभव न किया होता कि बाबाजी स्वयं हनुमान के अवतार थे तो हनुमान के जीवन या उनके कार्यों के बारे में मैं इतनी रुचि नहीं लेता।
प्रारम्भ में जब कुछ भक्त कहते थे कि बाबाजी हनुमान के अवतार हैं-या स्वयं हनुमान हैं तो मुझे विश्वास नहीं होता था। मैं सोचता था कि यह इनका मात्र भ्रम है- मैं सोचता था कि कैसे यह व्यक्ति हनुमान की तरह सर्वोच्च उर्जावान सर्वोच्च भक्ति तथा अपने स्वामी के लिए सर्वस्व अपर्ण करने को तैयार रहते होंगे? हनुमान जी अपने स्वामी के चरणों के पास बैठ कर उनकी हर इच्छा का पालन करते थे।
लेकिन धीरे-धीरे लम्बी प्रक्रिया और विचार के पश्चात् मुझे पूरा विश्वास हो गया कि बाबा जी हनुमानजी के अवतार थे नहीं नहीं वे स्वयं हनुमान थे।
मैं हनुमान के बारे में जो भी जान सका; जो भी सोच सका वह हनुमान चालीसा या रामचरित मानस पढ़ने से नहीं अपितु मेरी सोच इसलिए बनी कि मैं स्वयं हनुमान के साथ रहा हूँ।
हनुमानजी के बारे में अपनी शास्त्रीय ज्ञान की अक्षमता मैने आपको पहले ही बता दिया है फिर भी आपका आग्रह है तो हनुमान जी के बारे में कुछ पुस्तकों, बाबा जी के भक्तों, या स्वयं बाबा जी के साथ रहने से मुझे जो जानकारी है उसे आपको अवश्य बताऊँगा।
हम जानते हैं कि हनुमान राम के साथ पृथ्वी पर इसलिए आये थे जिससे कि वे उनकी सहायता कर सके। क्योंकि उस समय धर्म नष्ट हो रहा था तथा पृथ्वी पर पाप का बोझ बढ़ रहा था। पूरे संसार में तेजी से अनाचार फैल रहा था। सदगुणी तथा धर्म-परायण व्यक्ति दिन-प्रतिदिन कठिनाइयों से घिरते जा रहे थे तथा उनका पतन होता जा रहा था और चूँकि ईश्वर अपने बच्चों की सुरक्षा, उनका जीवन बाधा रहित तथा अच्छा बनाने की सोचते रहते हैं इसलिए ईश्वर को धरती पर अवतरण करना पड़ता है। संस्कृत भाषा में इसे ‘अवतार’ की संज्ञा दी जाती है— ईश्वर स्वर्ग से धरती पर आते हैं।
नीम करोली बाबा गुप्त मंदिर महरौली :नीम करोली बाबा गुप्त मंदिर महरौली – Baba Neem Karoli
अब जरा सोचिए कि ईश्वर स्वर्ग में कैसे रहते होंगे- उनका कोई शरीर रहता होगा या वे सूक्ष्म चेतन तत्व के रूप में विद्यमान रहते होंगे- हम यह नहीं जान सकते। हाँ इस बारे में निश्चयपूर्वक तभी कहा जा सकता है; जब हम में से कोई स्वर्ग जाए, वहाँ ईश्वर के साथ रहे; और पुनः पृथ्वी पर आकर वहाँ के विषय में हमें बताये।
जब ईश्वर संसार में आते हैं तो उन्हें सांसारिक जीव बनना पड़ता है तथा उन्हें यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि वे संसार में खो तो नहीं रहे हैं।
वे संसार में पूर्णत: लिप्त तो नहीं हो गये। उस समय ईश्वर को एक सांसारिक जीव का रूप लेना पड़ेगा, एक शरीर, एक आकार धारण करना पड़ेगा, साथ ही साथ उन्हें इस बात का सतत् ध्यान भी रखना पड़ेगा कि वे पृथ्वी के ही नहीं हैं अपितु स्वर्ग में भी उनका आस्तित्व है।
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ईश्वरीय अवतारों में एक अनोखा संयोग बनता है। वे शरीर तो किसी मानव, पशु या अन्य जीव का धारण करते हैं, लेकिन उस शरीर में जो भावना, ऊर्जा, चेतना या आत्मा रहती है, वह पूरी तरह दैवी रहती है। संसार में जितने भी अवतार हुए हैं चाहे वे – राम हों, कृष्ण हों, बुद्ध हों, ईसा हों, मुहम्मद हों – सब में हम शरीर तथा चेतना का श्रेष्ठ संयोजन देखते हैं।
एक बात और है कि जब सम्पूर्ण संसार पापमय हो जाता है तब ईश्वर की स्वयं की दिव्य. चेतना या ईश्वर स्वयं अवतार लेते हैं। लेकिन जब छोटी समस्याएं होती हैं; कुछ अपेक्षाकृत छोटे कार्य करने हैं, तब ये अवतार साधु सन्तों के रूप में होते हैं, जो एक छोटे या अपेक्षाकृतकम बड़े समाज को प्रभावित करते हैं, परन्तु उद्देश्य समान होता है। पृथ्वी पर से पाप का बोझ कम हो, धार्मिक तथा सात्विक प्रवृत्ति के लोगों का जीवन सुगम हो, उनका मंगल हो ।
जब राम, जो भगवान विष्णु ही थे, ने मानव के रूप में अवतार लिया तब आसुरी शक्तियों ने पृथ्वी पर ही नहीं अपितु स्वर्ग में भी अपना आधिपत्य जमा लिया था।
रावण ही इन आसुरी शक्तियों का नेतृत्व कर रहा था। वह पृथ्वी के अधिकांश राज्यों, मानव समाज पर ही विजय नहीं कर रहा था अपितु वह देव, दनुज, किन्नर, नागों पर भी अपना आधिपत्य जमाता जा रहा था।
उस समय जब पापाचार तेजी से बढ़ रहा था, पृथ्वी पर पाप का बोझ बढ़ रहा था, तब राक्षसों से संसार की रक्षा के लिए, मानव के शान्त स्वतन्त्र तथा सुखमय जीवन की अभिवृद्धि के लिए, भगवान को राम के रूप में अवतार लेना पड़ा।
अब जब भगवान राम का धरती पर अवतार हुआ तब दानवों, राक्षसों के विनाश के लिए उन्हें विकट युद्ध करना था। उस युद्ध के लिए उन्हें सेना, सेनापति, राजदूत, मंत्री आदि की आवश्यकताथी तथा ये कर्मचारी ऐसे हों जो कि स्वामी के कार्य को ठीक-ठीक समझ कर उसे बड़ी निपुणता से सम्पादित कर सकें। तभी तो राम को अपने विजय अभियान में सफलता मिल सकती थी।
कैंची धाम की पहली यात्रा :https://babaneemkaroli.in/%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%82%e0%a4%9a%e0%a5%80-%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%ae-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a4%be-%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%ae-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%b2%e0%a5%80/
हम देखते हैं कि जब भगवान राम का अवतार हुआ तो भाई के रूप में लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न आये-पत्नी के रूप में सीता आईं तथा उनके भाइयों के अतिरिक्त उसी समय एक बहुत ही सशक्त एवं भव्य व्यक्तित्व के स्वामी हनुमान भी अवतरित हुए।
हम जानते हैं कि हनुमान के बिना रामायण पूरी हो ही नहीं सकती। हनुमान के बिना रावण पर विजय पाई ही नहीं जा सकती थी। हनुमान के बिना सीता की खोज हो ही नहीं सकती थी। हनुमान के राम अपना उद्देश्य पूरा करने में कितने असहाय हो जाते।
हम देखते हैं कि हनुमान सदैव सतर्क, सदैव जागृत, हर कार्य करने को आतुर रहते थे। हनुमान जी अपनी कोई इच्छा नहीं थी। अपनी कोई अपेक्षा नहीं थी। हनुमान जी सहज समाधि में लीन योगी की तरह अपने शरीर का बोध भी नहीं था। वह हमेशा अपने स्वामी के साथ छाया की भाँति रहते थे।
नीम करोली बाबा के चरण चिह्न :https://babaneemkaroli.in/neem-karoli-baba-footprints-on-the-wall/
हम यह भी देखते हैं कि ऐसी विश्वासपात्रता, ऐसी समर्पित भक्ति, ऐसी मानसिकता जहाँ निजपन पूरी तरह आराध्य के चरणों में समर्पित हो और जहाँ ऐसी सोच ऐसी अन्तर्दृष्टि हो जो केवल यह देखे कि “मुझे अपने स्वामी के लिए क्या करना है।” यह केवल हनुमान में ही हो सकती थी। हनुमान वाणी द्वारा दिये गये आदेश की प्रतीक्षा नहीं करते थे अपितु वह अपने स्वामी की इच्छा मात्र को जानकर कार्य में तत्पर हो जाते थे।
ऐसी उदात्त भक्ति, ऐसा समर्पण, ऐसी स्वामिभक्ति हम संसार के किसी साहित्य या संसार के किसी कथानक के पात्र में नहीं पाते। राम की गरिमा, राम की प्रतिष्ठा, केवल लक्ष्मण, भरत या सीता के द्वारा ही नहीं बढ़ी अपितु हनुमान के द्वारा ही वह उस स्तर तक पहुँची।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर हनुमान बन्दर के रूप में ही क्यों आये? बाबा जी प्रायः कहा करते थे कि कुछ स्थानों पर लोग हनुमान को बन्दर है बन्दर है. कह कर हँसी उड़ाते हैं। वह हनुमान को देवता के रूप में गंभीरता से नहीं लेते। कुछ लोगों को बन्दर को देवता के रूप में पूजने में हिचक सी होती है।
मैं जानता हूँ कि बहुत से लोग आसानी से हनुमान की पूजा करना नहीं स्वीकार कर पाते। मैंने देखा है कि बंगाल में लोग – देवी, विष्णु, शिव की उपासना करते हैं, लेकिन वे हनुमान की पूजा नहीं करते हैं। सोचना पड़ता है वे कि यदि हनुमान को लोग इस भावना और दृष्टि से देखते हैं तब ईश्वर ने हनुमान के रूप में क्यों अवतार लिया । वास्तव में यह एक विचित्र रहस्य है, जिसे हमें आपको जानना चाहिए।
नीम करोली बाबा ने खीर ग्रहण करी :https://babaneemkaroli.in/neem-karoli-baba-ate-kheer/
एक बात का उल्लेख मैं प्रारंभ में ही कर दूँ कि सभी पेड़, पौधे, सभी चराचर जीवन बीज से ही उत्पन्न होते हैं। कोई भी पौधा या जीव बिना धरती में बीज बोये आस्तित्व में नहीं आ सकता। यदि हम कृषि पर गौर करें तो देखते हैं कि अगर हम अँगूर उगाना चाहते हैं तो हमें अँगूर का बीज बोना पड़ता है और यदि अगर आप केला बोना चाहते हैं तो आपको केले का बीज या जड़ लगाना पड़ता है। इसी प्रकार बन्दर, गधे या यहाँ तक कि मनुष्य भी हमें पैदा करना है तो मनुष्य के बीज की आवश्यकता होगी।
प्रश्न यह है कि हनुमान जिन्हें कि दैवी कार्य सम्पादित करना था- उन्हें दैवी ऊर्जा की आवश्यकता थी- क्या – एक साधारण बन्दर केसरी के बीज से पैदा हो सकते थे। –
इस प्रश्न पर विचार करने से पहले आईये एक और प्रश्न पर विचार कर लें- हम जानते हैं कि यदि जीसस जोसेफ के पुत्र के रूप में पैदा होते तो वह अन्य साधारण मनुष्य की तरह होते। मेरी और जोसेफ के अन्य पुत्र एवं पुत्रियाँ भी थीं लेकिन वे जीसस नहीं हो सके, जीसस मानव देह में पैदा हुए थे।
साधारणतया देखने पर न तो वे एक मानव जोसेफ के पुत्र थे- परन्तु वास्तव में – वे स्वर्ग के भगवान, होली फादर के पुत्र थे, कहने का तात्पर्य है कि मेरी के अन्दर जो बीज पड़ा वह जोसफ का नहीं था अपितु वह दिव्य ईश्वरीय चेतना का बीज था।
इसी प्रकार यदि हनुमान की उत्पत्ति पर विचार करें तो देखेंगे कि-हनुमान अंजना के गर्भ से बानर केसरी के बीज (वीर्य) से पैदा हुए लेकिन यह ऐसा नहीं था आप जानते हैं कि हनुमान को “” ‘पवनसुत ” कहा जाता है।
नीम करोली बाबा ने कमला दीदी को दर्शन दिए:https://babaneemkaroli.in/%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%ae-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a4%be-%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%a6%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b6%e0%a4%a8-%e0%a4%a6%e0%a4%bf/
एक बार अंजना नदी के किनारे खड़ी थीं, उनके कानों के पास हवा की ‘सरसराहट’ सी हुई और पवनदेव अंजना के कानों में प्रवेश कर गये। अंजना ने कहा, “अरे! आपने यह क्या किया? मैं विवाहिता स्त्री हूँ”
जीसस के अवतरण के सन्दर्भ में एंजल ने मेरी से कहा था “ईश्वर अवतार ले रहे हैं, तुम भगवान की माँ बनोगी और वह आपके पुत्र बनेंगे।”
ठीक उसी प्रकार पवनदेव ने अंजना से कहा था, “अंजना तुम्हारा कौमार्य या पवित्रता नष्ट नहीं हुई, ईश्वर तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेंगे।”
पुनश्च राम के जीवन को देखिए, राम दशरथ के पुत्र हैं।
वृद्धावस्था में दशरथ को एक ही चिन्ता थी कि वे पुत्र विहीन हैं। दशरथ सोचा करते कि, “मैं विस्तृत साम्राज्य का स्वामी हूँ। मेरे पास बहुमूल्य रत्न तथा सम्पूर्ण वैभव है, लेकिन मैं कितना दु:खी हूँ कि मेरे पास एक भी पुत्र नहीं है।” एक सफल यज्ञ का आयोजन हुआ। प्रसाद स्वरूप मिली खीर को खाने से कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा पुत्रवती हुईं।
अब रामायण के कथानक की प्रमुख पात्रा-सीता की उत्पत्ति पर विचार करें। उन्हें जनक-नन्दिनी, जनक सुता कहते हैं, पर वह भी जनक के बीज से नहीं पैदा हुई थीं।
राजा जनक किसी कर्म काण्डीय विधान के अन्तर्गत हल चला रहे थे और वहीं पृथ्वी से सीता की उत्पत्ति हुई थी।
वह पृथ्वी पुत्री थीं, धरती माँ की बेटी थीं। जनक उन्हें वहाँ से निकाल कर बाहर लाये थे।
यहाँ हमें “दैवी उत्पत्ति की अवधारणा” का बोध होता है।
जब कोई दैवी सत्ता पृथ्वी पर अवतरित होती है चाहे वह मानव के रूप में बन्दर के रूप में या सर्प के रूप में या उसी तरह किसी अन्य रूप में तब बीज उसी दिव्य सत्ता का ही होता है भले ही वह गर्भ किसी स्त्री, या बानर या कोई अन्य सात्विक प्राणी का गर्भ हो।
नीम करोली बाबा ने गंगा जल को दूध बना दिया: https://babaneemkaroli.in/%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%ae-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a4%be-%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%97%e0%a4%82%e0%a4%97%e0%a4%be-%e0%a4%9c%e0%a4%b2-%e0%a4%95/
हनुमान एक ईश्वरीय अवतार थे और वे इस पृथ्वी पर लेफ्टिनन्ट या कान्ट्रोलर जनरल या कमान्डर-इन-चीफ या दास के रूप में राम की सेवा के लिए आये थे।
साधारण समझ में तो वे वानर के रूप में थे लेकिन वस्तु स्थिति थी कि दैवी सत्ता बानर के रूप में अवतरित हुई थी।
आप एक प्रश्न करेंगे कि आखिर हनुमान ने बानर के रूप में क्यों अवतार लिया? वह लक्ष्मण, भरत या राम की तरह मानव के रूप में भी अवतरित हो सकते थे। यदि आप समझने का प्रयास करेंगे तो पायेंगे कि राम, लक्ष्मण, भरत द्वारा जो कार्य होने थे उनसे हनुमान द्वारा किये जाने वाले कार्य अलग थे, भिन्न थे।
हम देखते हैं कि जब कोई शल्य चिकित्सक शल्य-क्रिया के लिए कक्ष में जाता है, तो वह विशेष प्रकार के वस्त्र विशेष प्रकार के वस्त्रों से सज्जित होता है जिससे वह शल्य क्रिया ठीक ढंग से सम्पन्न कर सकें। ठीक उसी प्रकार जब अन्तरिक्ष यात्री अन्तरिक्ष यान से अन्तरिक्ष या अन्य ग्रहों को जाते हैं तो वे भी विशेष प्रकार के पहनावे तथा उपकरणों से युक्त रहते हैं।
सामान्यतया वह अन्तरिक्ष यात्री पृथ्वी पर रहने के समय उन वस्त्रों या उपकरणों का प्रयोग नहीं करते ।
आप देखें कि हनुमान को कुछ ऐसे कार्य करने थे जो पृथ्वी तक ही सीमित नहीं थे—अपितु उनके कार्यों का विस्तार वृक्षों की शाखाओं, पर्वत शिखरों तथा समुद्र के उस पार तक था। किस प्रकार के जीव, कौन से मानव उच्च शिखरों को लाँघ सकते थे? कौन से मानव वृक्षों की शाखाओं पर केवल फल-फूल खाकर कई दिन बिता सकते थे? कौन से मानव वृक्षों की शाखाओं पर, बिना घर बिना छाया के सो सकते थे? कौन मानव बिना जलपान या वायुयान के समुद्र को लाँघ सकते थे?
किस प्रकार के मानव लंका को जला सकते जिनके पास हनुमान की तरह लम्बी पूँछ न होती। इस प्रकार हम देखते हैं कि हनुमान को जिस प्रकार के कार्य करने थे- वे उसी प्रकार के शरीर, उसी प्रकार का लाधव, उसी प्रकार की गति से किया जा सकता था जो कि एक बानर के शरीर में होते हैं।
बानर कूद सकते हैं, बानर वृक्षों की शाखाओं पर रह सकते हैं, बानर फल फूल खाकर जी सकते हैं लेकिन मानव ऐसा नहीं कर सकते।
अब देखिए- जब आपका देश सेना का गठन करता है या सेना जब युद्ध करने के लिए आगे बढ़ती है तब पीछे पीछे सेना के सहयोग के लिए आपूर्ति की एक पूरी व्यवस्था रहती है। जितनी ही बड़ी सेना होगी उतनी ही बड़ी उनके आवास की समस्या, रसद की समस्या रहती है। सेना से अच्छे कार्य के लिए अच्छे युद्ध परिणाम के लिए आपकी सरकार को उनकी सुविधा की सारी बातों का पूरा पूरा ध्यान रखना पड़ता है।
हम देखते हैं कि न तो राम के पास तथा न ही सुग्रीव के पास वैसी सुविधा देने की व्यवस्था थी जिससे सेना समुद्र पार करके लंका में युद्ध कर सके। राम को ऐसे ही आत्म निर्भर सैनिकों की आवश्यकता थी जिनके लिए न कैम्प, न आवास, न भोजन तथा न ही यातायात के लिए साधन की आवश्यकता हो। राम की परिस्थिति कैसी थी? वह साधन हीनता की स्थिति में केवल लक्ष्मण के साथ जंगल में विचरण कर रहे थे।
समय की आवश्यकता के अनुसार ही हनुमान सारी विभूतियों और सारे गुणों से युक्त ‘से थे जैसे कि अन्तरिक्ष यात्री अन्तरिक्ष यान में बैठने से पूर्व सारी सुविधाओं से युक्त होते हैं।
हनुमान के पास कार्य करने के सभी गुण थे वह आकाश में विचरण कर सकते थे। वह वृक्षों पर रह सकते थे। वह बड़ी-बड़ी पर्वत शिलाओं को उठा कर चल सकते थे। वह समुद्र पार कर सकते थे। इन सब गुणों के अलावा क्या हनुमान में कुछ मानवीय गुण भी थे? कुछ दैवी गुण भो थे जिनसे हमें कुछ सीख मिलती है? निश्चय ही हम लोग हनुमान से कूदना, पेड़ों पर रहना, बड़ी बड़ी चट्टानों को उठाना नहीं सीखना चाहेंगे, क्योंकि इनका हमारे जीवन में कोई उपयोग नहीं है।
नीम करोली बाबा ने अपने तखत के लिए आदेश दिया:https://babaneemkaroli.in/neem-karoli-baba-gives-a-message/
हमारे लिए तो यही शिक्षा साधक होगी कि कैसे एक भक्त अपने आराध्य के हर प्रकार के कार्यों को करने के लिए हमेशा तत्पर रहता है। जब हम हनुमान के दैवी गुणों या सर्वोच्च मानगुणों के बारे में विचार करने हैं तो हमें उन पर गर्व होता है। इन्हीं दैवी गुणों के कारण हनुमान से इतना अनुराग हो जाता है कि जब हम हनुमान के बारे में पढ़ते या सोचते हैं तो स्वतः ही हमारी आँखों से आँसू बहने लगते हैं।
तो ऐसी कौन सी बात है जिससे हमारा हृदय द्रवित हो जाता है सुन्दर दिव्य गुणों से युक्त हो जाता है।
सीता हरण के बाद राम की स्थिति असहाय सी हो गई थी। लक्ष्मण उन्हें सान्त्वना देने में असमर्थ हो रहे थे। राम विलाप कर रहे थे उनके पैर धरती पर ठीक से नहीं पड़ रहे थे। ऐसी स्थिति में विचरण करते वे एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ सुग्रीव रहता था।
सुग्रीव उस पर्वत की चोटी पर राम की ही तरह असहायता की स्थिति में रह रहा था। परिस्थिति में थोड़ी सी ही भिन्नता थी। राम ने अपनी पत्नी को खो दिया था; सुग्रीव भी अपनी पत्नी खो चुके थे। राम की पत्नी का अपहरण रावण ने किया था।
जब कि सुग्रीव की पत्नी को उसके भाई बालि ने बलपूर्वक अपने पास रख लिया था। सुग्रीव की पत्नी छीन ली गई थी तथा उसका राज्य भी छीन लिया गया था। सुग्रीव एक छोटे से पर्वत शिखर पर रहता था। एक राजपुत्र जो कभी उस राज्य का राजा था, वैसी स्थिति में रह रहा था तथा हमेशा सोचता रहता था कि “मैं किसी भी समय बाली के द्वारा मारा जा सकता हूँ। ” उसी समय सुग्रीव ने देखा कि दो व्यक्ति धनुष-बाण लिये हुए, उस जंगल में उनकी तरफ चले आ रहे हैं।
वे लोग भयभीत हो गये तथा सोचन लगे कि निश्चय ही बालि ने इन लोगों को हमें मारने के लिए भेजा है क्योंकि बालि उस अभिशप्त भू-खण्ड पर स्वयं नहीं आ सकता था। बहुत ही भयभीत होकर सुग्रीव ने हनुमान से कहा, “कृपया जाकर पता लगाइए कि वे लोग कौन हैं?” हनुमान राम के पास आये किन्तु वानर के रूप में नहीं अपितु शिखा, सूत्र-धारी ब्राह्मण के वेश में।
नीम करोली बाबा ने रामदास को गंगा जी किनारे दर्शन दिए :https://babaneemkaroli.in/when-ram-dass-met-baba-at-prayagraj/
हनुमान के आने और उनके बातचीत के ढंग से प्रभावित होकर राम ने लक्ष्मण से कहा था, “ओह! लक्ष्मण यह व्यक्ति शास्त्रों और वेदों का मर्मज्ञ लगता है। और यह सभी शास्त्रों तथा ज्ञान की सभी विधाओं का ज्ञाता लगता है। “
देखो लक्ष्मण- यह व्यक्ति जिस प्रकार वार्तालाप कर रहा था वे केवल अनमोल वैदिक रत्न ही नहीं थे बल्कि ऐसी सुन्दर भाषा से आवेष्टित थे, शब्दों का चयन इतना अच्छा था कि उसमें एक भी अनावश्यक शब्द नहीं थे।
दूसरे इस व्यक्ति के हाव-भाव तथा विचारों की अभिव्यक्ति इतनी अच्छी थी जिससे यह व्यक्ति परिपूर्ण व्यक्तित्व का स्वामी लगता है और तीसरी बात उनके बातचीत के ढंग से है कि इनकी बातें बहुत ही सरल, सरस तथा ऐसी हैं जो दिल को छू लेती हैं। राम ने अन्त में कहा, “वह राजा कितना भाग्यशाली है जिसके पास ऐसा मंत्री हों, वह तो बिना लड़े ही युद्ध में जय प्राप्त कर सकता है।”
हनुमान के बारे में राम ने यह बातें रामायण के किष्किन्धा काण्ड में कहा गया है। हनुमान समझ गये कि राम के रूप में विष्णु का अवतार हो गया है।
लोहे की पट्टी पर हनुमान जी के दर्शन :https://babaneemkaroli.in/darshan-of-lord-hanuman-ji/
राम पृथ्वी पर बढ़ रहे पाप के बोझ को हल्का करने के लिए आये हैं। हनुमान उनकी सेवा के लिए; उनका कार्य करने के लिए उनके सेनापति बनने के लिए आये हैं। हनुमान अपने स्वामी को जान गये; उनको साष्टांग दण्डवत् किया तथा बोले, “प्रभु मैंने आपको पहचाना नहीं था इसलिए मैं इस वेष में आया। आप मुझे क्षमा कर दें। आप दया तथा करुणा के सागर हैं। आप अपने दास की कमजोरियों को जानते हैं”।
हनुमान इतने चतुर हैं; इतने बुद्धिमान हैं कि वह जान गये कि राम इस समय कठिन विपत्ति में हैं तथा सुग्रीव भी वैसी ही परिस्थिति में हैं।
परिस्थिति कुछ स्कूल के दिनों में पढ़ी गई कहानी जैसी थी- दो व्यक्ति थे, एक अन्धा था तथा दूसरा लँगड़ा, दोनों अलग-अलग कोई काम नहीं कर पाते थे। लँगड़े ने अन्धे से कहा, “मेरे पैर नहीं हैं: तुम्हारे पास पैर हैं, आओ हम दोनों तुम्हारे पैरों का प्रयोग करें, तुम्हारे पास आँख नहीं है, मेरे पास आँख हैं; आओ हम दोनों इन आँखों का प्रयोग करें।” तब लँगड़ा अन्धे के कन्धे पर चढ़ गया। लंगड़ा रास्ता बताने लगा तथा अन्धा चलने लगा।
ठीक इसी प्रकार की परिस्थिति वहाँ भी थी। राम विपत्ति में थे। उनके पास सेना नहीं थी; सेनापति नहीं थे। सुग्रीव के पास भी बन्दरों की सेना के अलावा कुछ भी नहीं था। बिना योग्य नेतृत्व के बानर सेना भी निरुपयोगी थी। उस सेना को प्रशिक्षण देने के लिए, उसे उपयुक्त अस्त्रों-शस्त्रों से ससज्जित करने के लिए उपयुक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी।
हनुमान ने सोचा कि यहाँ वे कुछ कर सकते हैं। हनुमान ने राम से कहा ‘आप सुग्रीव से मैत्री पूर्ण सन्धि कर लें। वह सीता की खोज में तथा उन्हें वापस लाने में आपका सहयोग करेंगे तथा आप सुग्रीव का खोया हुआ राज्य तथा उनकी पत्नी वापस कराने में उनका सहयोग करिए।” इतना कहने के बाद हनुमान ने कहा, “आप तथा सुग्रीव के बीच एक सन्धि हो जानी चाहिए।” इतना कहने के बाद हनुमान राम और लक्ष्मण को अपने कन्धे पर बैठाकर सुग्रीव के पास के ले गये।
हनुमान ने सुग्रीव से उनकी परिस्थिति बताई तथा कहा कि ये लोग सीता की खोज में है। तब हनुमान ने अग्नि प्रज्वलित किया। अग्नि को साक्षी मानकर दोनों पक्षों में सन्धि हुई।
आप लोग पढ़े होंगे कि हनुमान चालीसा में हनुमान को ‘संकट मोचन’ कहा गया है क्योंकि हनुमान संकट समय हमेशा सहायता करते हैं। जहाँ जहाँ भी समस्या होती है, जहाँ कठिनाई होती है- लोग हमेशा हनुमान को • याद करते हैं – हनुमान आते हैं और हमें संकट से मुक्ति दिलाते हैं।
राम भी संकट में थे और सुग्रीव भी संकट में थे। राम के संकट में कौन काम आया; उनके संकट को किसने समाप्त किया वह हनुमान हैं- वही संकट मोचन हैं।
यदि हम हनुमान के समकालिक परिस्थिति पर विचार करें तो समझ में आता है कि उन्हें किस प्रकार के कार्य करने थे। हनुमान उन सभी योग्यताओं से युक्त थे; पूर्ण थे जिनकी राम के कार्य के लिए आवश्यकता थी। उस कार्य के लिए हनुमान के पास शारीरिक तथा बौद्धिक दोनों ही योग्यताएँ विद्यमान थी । शारीरिक सौष्ठव के दृष्टिकोण से उनके पास ऊर्जा थी शक्ति थी, सर्वव्यापकता का गुण था तथा वह कई सिद्धियों के स्वामी थे । बौद्धिक दृष्टि से भी हनुमान पूर्ण थे— उनमें बुद्धि थी, ज्ञान था अध्ययन तथा आध्यात्मिक शक्ति थी । वे सिद्धियाँ जिनके लिए ऋषि-मुनि कई जन्मों तक तपस्या करते हैं वे सारी सिद्धियाँ हनुमान के पास सहज ही उपलब्ध थीं।
नीम करोली बाबा जी ने राम राम लिखा :https://babaneemkaroli.in/ram-ram-writing-by-neem-karoli-baba/
जहाँ हनुमान के पास संयमित मधुर वाणी थी; वहीं उनके पास कूटनीतिक ज्ञान भी था। हनुमान एक उच्चकोटि के भक्त थे, स्नेही स्वभाव के थे। बालक की भाँति निर्विकार तथा मोहक थे । जिन हनुमान से लंका के बड़े-बड़े राक्षस डर से काँपते थे; वही हनुमान सीता के लिए एक छोटे बच्चे की तरह थे। जो हनुमान दैत्यों के लिए आतंक के पर्याय थे वही हनुमान सीता की चरण वन्दना करते थे जो हनुमान समुद्र लांघने के लिए पर्वताकार हो सकते थे। वही हनुमान लघु रूप धारण करके (मख्खी की तरह बन कर) हर जगह आ जा सकते थे।
इतने सारे गुणों तथा विशेषताओं से हनुमान युक्त थे। यहाँ हमें हनुमान को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पाते हैं जो अपने स्वामी राम के उद्देश्य को पूरा करने के लिए सभी कार्यों की योग्यता रखते थे। सीता की खोज के लिए बानरी सेना की टुकड़ियाँ चारों दिशाओं की ओर प्रस्थान कर रही थी। हनुमान की बानरी-सेना दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान कर रही थी।
बानर सेना पहाड़ों, गिरि-कन्दराओं सघन वनों से होते हुए आगे बढ़ रही थी । सेना के पास न कैम्प था, न रसद, तथा न ही आपूर्ति की कोई व्यवस्था थी। उस घोर जंगल में कुछ भी उपलब्ध नहीं था। थोड़े ही दिनों में बानर सेना भूख-प्यास से तड़पने लगी। प्यास से व्याकुल सेना के लिए कहीं भी एक भी बूँद पानी नहीं था।
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इतने में हनुमान ने देखा कि एक गुफा से कुछ चिड़ियाँ निकल रही हैं। इन चिड़ियों के शरीर पानी से भीगे हुए थे। हनुमान ने सोचा कि “यहाँ कोई गुप्त मार्ग है जिससे जाने पर पानी मिल सकता है।”‘, हनुमान सेना के साथ जब उस गुफा में प्रवेश किये तो उन्होंने देखा कि एक साध्वी भगवान शिव के मन्दिर तथा आश्रम की देखभाल कर रही है।
वह साध्वी जान गई कि यह राम की सेना है जो कि भूखी-प्यासी है। उन्होंने सेना को भोजन कराया तथा पानी पिलाया उसके बाद एक गुप्त मार्ग से पूरी सेना को बाहर निकाल दिया। यहाँ भी संकट मोचन हनुमान ने भूख-प्यास से तड़पती सेना की रक्षा किया।
सीता को खोजते-खोजते बानर सेना समुद्र तट तक पहुँच गई। पूरा एक माह बीत रहा था और सुग्रीव का आदेश था कि “यदि तुम लोग एक माह के अन्दर सीता का पता लगाकर नहीं लौटे तो मार डाले जाओगे।” धीरे-धीरे अन्तिम समयावधि भी समाप्त हो रही थी। सीता का कहीं पता नहीं चल रहा था।
उन लोगों ने कहा “अब सीता के मिलने की कोई आशा नहीं है। हम सुग्रीव के पास वापस नहीं जा सकते क्योंकि वह हमें मार डालेगा। हम लोग भूखे रह कर अपनी जान दे देंगे। सुग्रीव की सेना द्वारा वाण, भाले, बरछों से मारे जाने अच्छा होगा कि हम लोग भूखे रह कर अपनी जान दे दें।” जब पूरी सेना हताश होकर यह सब बात कर रही थी तभी वहाँ जटायु का भाई सम्पाती आया और उसने कहा, “मैं कई दिनों से भूखा हूँ। यहाँ कई बन्दर मरने वाले हैं मैं इन्हें खाऊँगा, इसी उत्साह में भरकर सम्पाती वहाँ विचरण करने लगा।
वहाँ वानरों ने संपाती को देख कर कहा “देखो! युद्ध में जटायू ने सीता को रावण से छुड़ाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी औरयहाँ उसी कबीले का, उसी जाति का पक्षी, उस बानर सेना जो राम के कार्य के लिए सीता को खोजने निकली है को मारकर अपना भोजन करना चाहता है।’
यह सब सुनकर सम्पाती बोला, “अरे यह तुम लोग जटायू के बारे में क्या ” कह रहे हो? वह तो मेरा छोटा भाई था।”
किन्तु बात जानकर पक्षिराज सम्पाती ने कहा, “ओह! दुःख है कि मेरे पास पंख नहीं हैं, नहीं तो मैं लंका चला जाता और वहाँ से उनका पता तथा सन्देश ले आता- लेकिन फिर भी मैं यहाँ से देख रहा हूँ कि सीता लंका में हैं तथा एक उपवन में बैठी हैं”।
अब वहाँ यह प्रश्न उठा कि कौन समुद्र को पार करके उस पार जायेगा? पहली बात तो यह थी कि इतने लम्बे समुद्र को पार करना, दूसरी बात यह थी कि एक दो दिन के समय में न तो नाव बन सकती थी तथा न ही सागर पर पुल बनाया जा सकता था। वे लोग कहते कि, “तुम लोग तो बन्दर हो समुद्र पार कर सकते हो।” यहीं सब बातें चल रही थीं। कोई कहता था “मैं इतने योजन जा सकता हूँ” कोई दूसरा कहता था, “मैं समुद्र पार तो कर जाऊँगा लेकिन वापस नहीं आ सकता” सभी अपनी-अपनी क्षमता बता रहे थे किन्तु हनुमान वहाँ चुपचाप बैठे थे।
जाम्बवन्त ने तब कहा, “हनुमान तुम चुपचाप क्यों बैठे हो? तुम्हारे पास ” पूरी क्षमता है; तुम्हारे पास सारी शक्तियाँ हैं, तुम पवन सुत हो— वही पवन देव जो बिना रोक के हर स्थान पर आते जाते हैं, तुम अपनी शक्ति क्यों भूले हो ?”
जाम्बवन्त के ऐसा कहने पर हनुमान जागृत हो उठे। बात यह थी कि जब हनुमान छोटे से बालक थे तभी से वह सारी शक्तियों से सम्पन्न थे। वह कहीं भी उड़ सकते थे। कहीं भी आ जा सकते थे। एक दिन उन्होंने उगते हुए सूर्य को लाल सेब समझ लिया तथा उसे पकड़ने के लिए कूद पड़े। ऐसा होने पर सारे ग्रहों का सन्तुलन बिगड़ जाता तथा सृष्टि विप्लव में फँस जाती। सभी देवता देवराज इन्द्र के पास हनुमान की शिकायत लेकर गये। इन्द्र ने वज्र प्रहार कर दिया और हनुमान गिर पड़े तभी से वे हनुमान कहलाये क्यों वज्र के प्रहार से उनकी डाढ़ की हड्डी टूट गई थी।
जब ऐसा हुआ तब पवनदेव तथा अन्य देवता, देवराज-इन्द्र के ऊपर कुपित हो गये। पवन- देव हनुमान को एक गुफा में ले गये तथा अपनी गति बन्द कर दिया। यदि हवा का बहना बन्द हो जाये तो सारे जीवों के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। उस समय केवल मानव या बानर ही व्यथित नहीं हुए अपितु स्वर्ग के देवता भी कठिनाई में पड़ गये।
तब सभी देवता चिन्तित हो गये थे। किंकर्त्तव्य विमूढ़ थे कि उनके प्राणों की रक्षा कैसे होगी। सभी देवता पितामह ब्रह्मा के पास गये और बोले, कि ” ऐसी घटना हो गई” ब्रह्मा ने कहा, “चलो हनुमान के पिता पवन देव के पास ” चलें और सभी लोग उन्हीं की प्रार्थना करें। सभी देवता पवन देव के पास आये और उन लोगों की प्रार्थना से सन्तुष्ट होकर पवन देव बहने लगे।
सभी देवता प्रसन्न होकर हनुमान को वरदान और विभूतियाँ देने लगे। किसी ने कहा कि तुम “अमर रहोगे’ ‘तुम्हें जल डुबो नहीं सकेगा”, किसी ने कहा, आग तुम्हें जला न सकेगी” तथा ” तुम्हें इन्द्र का वज्र भी नहीं मार सकेगा”। इस प्रकार, “तुम केवल अजर-अमर ही नहीं रहोगे अपितु तुम्हें संसार की कोई बाधा नहीं रहेगी” ऐसा वहाँ सब घटित हुआ। “
बन्दरों के बारे में कहा जाता है कि बन्दर तो बन्दर ही होते हैं। हनुमान जब छोटे बच्चे थे तब वे ऋषियों के आश्रमों में जाते तथा वहाँ बहुत उपद्रव करते थे। जब ऋषि घी से हवन कर रहे होते तब हनुमान यज्ञ कुण्ड में बाल्टियों से पानी डाल देते थे। हनुमान ऋषियों की पूजा सामग्री लेकर पेड़ पर चढ़ जाते. थे। जब हनुमान वहाँ वानरोंचित-उपद्रव मचान लगे तब ऋषियों ने कहा, ‘जाओ तुमने जो भी शक्तियाँ प्राप्त की हैं, वे तुम्हें याद नहीं रहेंगी यदि कोई उन शक्तियों की याद दिलायेगा तभी तुम्हें याद आयेगा।”
इसी श्राप के कारण हनुमान को पता नहीं था कि उनके पास क्या शक्तियाँ हैं और वे क्या कर सकते हैं। जब जाम्बवन्त ने उन्हें याद दिलाया तब वे कूद पड़े और बोले, “हाँ मैं वह करूँगा”।
बानर सेना ने खुशी-खुशी हनुमान को विदा किया। हनुमान जब लंका की ओर चले तब उन्हें तीन परीक्षाओं से गुजरना पड़ा।
सबसे पहले समुद्र के अन्दर स्थित मैनाक पर्वत ऊपर आ गया और यह सोचा कि हनुमान राम का कार्य करने जा रहे हैं। “मैं इन की हर संभव सहायता करुँगा, मैं अपना सिर ऊपर उठा लूँगा और इन्हें कुछ समय तक अपने ऊपर आराम करने दूँगा क्योंकि ये पानी पर आराम नहीं कर सकते।” मैनाक पर्वत समुद्र से निकल कर बोले, “आपके पिता मेरे मित्र हैं, आप थोड़ा आराम कर लें”, हनुमान ने पर्वत के माथे को थपथपाया और कहा, “जब तक मैं भगवान राम के काम को पूरा न कर लूँ मुझे आराम कहाँ है? मुझे भूख कहाँ? प्यास कहाँ? कृपया मुझे जाने दें।” और हनुमान इतना कहकर चल पड़े।
उसके बाद देवातओं ने सुरसा से कहा, “हनुमान एक बहुत ही कठिन ” अभियान में जा रहे हैं, तुम्हें जाकर इनकी परीक्षा लेनी चाहिए कि वे अभियान में सफलता की योग्यता रखते हैं कि नहीं। तब सुरसा राक्षसी का रूप धारण करके वहाँ गई और हनुमान से बोली, “मैं बहुत भूखी हूँ; तुम्हें खाऊँगी।”
हनुमान ने कहा, “माँ अभी मुझे जाने दो जब मैं वापस आऊँगा, तब मैं स्वयं ही तुम्हारा आहार बन जाऊँगा।”
सुरसा ने कहा, “नहीं नहीं मैं ऐसे धोखे में आने वाली नहीं हूँ। मैं तुम्हें खाऊँगी।
हनुमान ने कहा, “ठीक है जब यही होना है तब मैं क्या कर सकता हूँ? हनुमान ने कहा, “अपना मुँह खोलो मैं उसमें प्रवेश करूँगा।”
जैसे-जैसे सुरसा अपना मुँह फैलाती गई वैसे-वैसे हनुमान अपना शरीर बढ़ाते गये। इसके बाद हनुमान लघु रूप धारण करके मक्खी की तरह सूक्ष्म होकर उसके मुँह में जाकर वापस आ गये तथा बोले ” मैं तुम्हारे उदर में था, मैं तुम्हारे पेट में था।”
सुरसा ने कहा, “मेरे बच्चे, अब मैं समझ गई कि दैवी ने ” कार्य सम्पन्न करने के लिए तुम्हारे अन्दर पूरी योग्यता है। देवताओं की इच्छा मैंने तुम्हारी परीक्षा ली है जिसमें तुम सफल रहे।”
यहाँ हनुमान पुन: संकट मोचन के रूप में उद्धारक की भूमिका में हैं। पूरी बानर सेना संकट में थी। ” सीता का पता न चलने पर हम लोग अपना जीवन समाप्त कर लेंगे।” ऐसा उनका निश्चय था। हनुमान ने उनकी रक्षा की उन्हें वैसा करने से रोका।
समुद्र लाँघने के बारे में सभी लोगों ने कहा, “हम यह नहीं कर पायेंगे; यह काम केवल हनुमान कर पायेंगे” हनुमान ने वैसा ही किया और वह समुद्र पार कर गये।
हनुमान लंका प्रवेश कर गये। सीता का पता लगाने से पहले उन्होंने लंका के नक्शे को समझा तथा वहाँ की सुरक्षा व्यवस्था का आंकलन किया । हर जानकारी वे एक योग्य गुप्तचर की तरह ले रहे थे। वे हर प्रकार की छोटी से छोटी सूचना सावधानी से एकत्रित कर रहे थे; क्योंकि हनुमान को पता था कि सीता का पता लग जाने पर तुरन्त लंका पर आक्रमण करना था।
हनुमान ने सोचा मैं अपने स्वामी के लिए पर्याप्त सूचना लेता चलूँ। सीता की सूचना ही नहीं अपितु शत्रु के प्रकार; उसकी सैन्य शक्ति। नगर की सुरक्षा दीवार तथा उन सभी बाधाओं की जानकारी जिन्हें आक्रमण के समय पार करना होगा।” इस कार्य को उन्होंने बहुत सावधानी पूर्वक किया। इन सारी बातों पर गौर करते हुए वह सीता की खोज में लगे थे। हनुमान के लंका में प्रवेश के समय नगर वासी सो रहे थे।
प्रवेश द्वार पर प्रहरी के रूप में एक देवी जग रही थी। जब हनुमान लघु रूप में लंका में प्रवेश कर रहे थे, उसने इन्हें देख लिया और बोली “वहाँ क्यों जा रहे हो? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि मैं लंकिनी हूँ और मुझे इसी क्षण का इन्तजार था।” हनुमान के मुष्टिका प्रहार से वह वहीं गिर पड़ी तथा मूर्च्छित हो गई। फिर वह उठी और हनुमान को प्रणाम करके बोली, ” अब मैं जान गई कि तुम राम के दूत बनकर आये हो। मैं भी देव-योनि में ही थी। मुझे श्राप मिला था कि तुम्हें तब तक – लंका में राक्षसों के बीच रहना पड़ेगा जब तक राम के दूत हनुमान तुम्हारे ऊपर मुष्टिका प्रहार न करेंगे।
तभी तुम्हें मुक्ति मिलेगी और तब तुम समझना कि अब रावण का अन्त निकट है।
हनुमान हर स्थान पर सीता को खोजते-खोजते, रावण के अन्त:पुर में गये। वहाँ पर पृथ्वी तथा स्वर्ग की चुनी हुई अतीव सुन्दर सैकड़ों स्त्रियाँ थी। वह सुरापान किये हुए थीं तथा नशे की स्थिति में थीं। कुछ पलगों पर थीं और कुछ नीचे धरती पर, उनके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे। उन्हें अपने शरीर का ज्ञान नहीं था। हनुमान उन्हें देखकर सोचने लगे “नहीं इनमें सीता नहीं हो सकती।”
अचानक हनुमान के मन में विचार आया “मैं ब्रह्मचारी हूँ मैं स्त्रियों का स्पर्श तक नहीं करता। मैं उन्हें देखता नहीं तब यह कैसे मैं इन सुन्दर स्त्रियों के रनिवास में आ गया जो कि अर्धनग्नावस्था तथा नशे की हालत में पड़ी हैं? यह मैंने क्या किया?”
फिर हनुमान ने विचार किया, “यद्यपि मेरे नेत्रों ने यह सब देखा लेकिन मेरे मानस ने नहीं देखा। मैं इन दृश्यों को हृदय तक नहीं ले गया। यह तो केवल नेत्रों के देखे दृश्य थे। मेरा अन्तस् तो इनसे अछूता ही रहा तथा दूसरी बात “यह सब मैंने अपनी वासना के लिए नहीं किया अपने लिए नहीं किया। यह सब मैंने अपने स्वामी के कार्य के लिए किया है और मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए” इस प्रकार हनुमान अपने को समझाकर ग्लानि से मुक्त हुए।
इन स्थानों पर सीता को न पाकर हनुमान हताश हो गये। फिर भी उन्होंने कहा “मैं सीता की खोज नहीं छोडूंगा।” तभी उन्हें सम्पाती का कथन याद आया, “वह उपवन में हैं मैं उन्हें देख रहा हूँ” हनुमान वहाँ गये। वहाँ वास्तव में एक सुन्दर वाटिका थी जिसे रावण ने बहुत ही सुन्दरता से निर्मित कराया था। सीता वहाँ थी।
हनुमान विशाल बन्दर के उस रूप में सीता के सामने नहीं गये क्योंकि सीता डर जाती और तब सब किया कराया व्यर्थ हो जाता। हनुमान ने छोटे बन्दर का रूप धारण किया और वृक्ष की शाखाओं में छिप गये।
उसी समय हनुमान ने देखा कि रावण अपने परिचरों के साथ वहाँ आया और सीता को भयभीत करते हुए बोला “तुम मेरी रानी बन जाओ सभी रानियों में प्रमुख रहोगी। मेरी प्रथम पटरानी मन्दोदरी तुम्हारी दासी बन कर रहेगी।” लेकिन सीता पर रावण की बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
रावण ने कहा, “राम के पास क्या है? वह एक भिखारी की तरह है। वह दूसरों की दया पर जी रहे हैं। मेरे पास पृथ्वी का ही नहीं बल्कि स्वर्ग का साम्राज्य भी है। स्वर्ण, रत्न तथा सभी वैभव मेरे पास हैं। यह सब सुनकर सीता रावण को अपशब्द कहने लगी। रावण ने कहा “सीता अपनी जबान सम्भाल कर बोलो अगर एक माह के अन्दर तुमने हमारी बात नहीं मानी तो तुम्हें टुकड़ों में काटकर इन्हीं परिचरों को खिला दूंगा ।”
इस प्रकार सीता को डरा-धमका रहे थे, और हनुमान चुपचाप यह सब देख सुन रहे थे ।
रावण की बातों से सीता विषाद-युक्त हो गईं कि “कोई चारा नहीं है, कोई रास्ता नहीं है, क्या करूं?” फिर सीता ने सोचा “यह सब सहन करने से तो अच्छा होता कि मेरे प्राण चले जाते।” सीता मन ही मन विचार करने लगीं। मेरे बाल लम्बे हैं, इनका प्रयोग रस्सी की तरहकरके पेड़ से लटक कर आत्म ह्त्या कर लेनी चाहिए जिससे इस अपमानजनक कष्ट से मुक्ति मिल सके।
सीता की आँखों से आँसू गिरने लगे तथा वह पुनः दुःखी हो गईं। जब रावण अपने परिचरों सहित चला गया तब हनुमान राम के जीवन गाथा के बारे में बोलने लगे। राम ने क्या-क्या किया। सीताहरण के बाद राम कैसी परिस्थिति में हैं।
विलाप करते राम कितने असहाय हो गये समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्या करें। राम को समझाने व सांत्वना देने में लक्ष्मण को कठिनाई हो रही है और इसके बाद कैसे राम और सुग्रीव के बीच सन्धि हुई। यह सब सुनकर सीता ने कहा, “यह कौन व्यक्ति है जो राम के बारे में बात कर रहा है? कौन है वह?” हनुमान तब सामने आ जाते हैं, सीता ने सोचा कि यह कोई रावण के ही छद्म-भेदी गुप्तचर हैं। हनुमान बड़ी कठिनाई से उनको समझा पाये कि वे राम के दूत हैं; कोई गुप्तचर नहीं है।
यह सारी बातें सीता को बताकर हनुमान सीता की मानसिक स्थिति को ठीक करने का प्रयास कर रहे थे जिससे कि सीता के अन्दर कुछ आत्म-विश्वास पैदा हो। तब हनुमान ने राम द्वारा पहचान के लिए दी गयी मुद्रिका सीता को दिया। पहचान कर सीता फिर विलाप करने लगीं। उन्होंने कहा, “मुझसे अब रावण के वचन सहे नहीं जाते? क्या आपके स्वामी मेरा उद्धार करेंगे?” हनुमान से देवी सीता का यह दुःख देखा नहीं जा रहा था।
उन्होंने कहा “माँ मुझसे आपका दुःख देखा नहीं जा रहा हैं। माँ रावण का वध करके आपको राम के पास ले चल सकता हूँ। अगर आप चाहते हैं कि मैं युद्ध न करूँ या रावण का वध न करूँ तो आप मेरे कन्धों पर बैठ जाइये; मैं आपको समुद्र पार करके राम के पास पहुँचा दूँगा।”
हनुमान के कहने पर सीता ने कहा “वत्स, मैं आपके स्वामी के आने की प्रतीक्षा करूँगीं। तुम जानते हो कि जब मैं असहाय थी तो रावण मेरा अपहरण करके यहाँ लाया। तब मैं विवश थी। अब मैं विवश नहीं हूँ। अतः मैं राम के अतिरिक्त किसी का स्पर्श नहीं कर सकती । स्वेच्छा से मैं पर पुरुष का कैसे स्पर्श करूँ? दूसरी बात यह है कि अगर तुम मुझे इस तरह ले चलोगे तो वह हमारे और तुम्हारे दोनों के लिए ठीक नहीं है।
मेरे स्वामी की भी अपकीर्ति होगी कि वे एक कायर हैं जो कि अपनी पत्नी की रक्षा नहीं कर सके। यह राम के लिए शर्म की बात होगी, जिससे उनकी अपकीर्ति होगी। जो बात न तुम चाहते हो न मैं चाहती हूँ। हम चाहते हैं कि तुम्हारे स्वामी की विमल कीर्ति चारों तरफ फैले, इसलिए हमें ऐसा नही करना चाहिए।”
हनुमान ने विचार किया कि अब उन्हें रावण तथा रावण के सैन्य बल की जानकारी लेनी चाहिए। हनुमान उस उपवन में फल खाने लगे तथा वृक्षों को तोड़ने लगे।
जब रावण की सेना उन्हें मारने आई तो हनुमान ने रावण के कुछ पुत्रों सहित बड़े-बड़े योद्धाओं का वध कर दिया। तत्पश्चात् रावण ने अपने परम शक्तिशाली पुत्र मेघनाद को भेजा। मेघनाद ने उनके ऊपर ब्रह्मास्त्र चला दिया; परन्तु हनुमान ने प्रतिरोध नहीं किया। ब्रह्मास्त्र का हनुमान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह उन्हें मार न सका।
हनुमान ने कहा, “मुझे ब्रह्मास्त्र की गरिमा का सम्मान करना चाहिए” इसलिए हनुमान मूर्च्छित हो गये तथा अपने को बँधने दिया। यहाँ पर राक्षसों से एक गलती हो गयी। उन्होंने सोचा कि वे हनुमान को रस्सी से बाँध लेंगे।
नियम यह है कि जब इस प्रकार के ब्रह्मास्त्र का प्रयोग होता है तब किसी दूसरे प्रकार के अस्त्र का प्रयोग नहीं करना चाहिए और यदि ऐसा किया जाता है तब ब्रह्मास्त्र का प्रभाव अपने आप समाप्त हो जाता है।
तो हनुमान वास्तव में स्वतंत्र ही थे; उन्हें खींच कर रावण के दरबार में लाया गया।
यहाँ हनुमान को रावण ने मृत्यु दण्ड की सजा दे दिया। जब हनुमान को मृत्यु दण्ड दिया जाने वाला था, तब रावण के भाई विभीषण वहाँ आये और बोले, “यह राजदूत हैं; इन्हें मारना नहीं चाहिए। यह अपने स्वामी का प्रतिनिधि बनकर आये हैं, ऐसा करना उनका कर्तव्य था।” रावण ने कहा कि ठीक है इसे “मारा न जाय लेकिन इसकी पूँछ जला दी जाय।” रावण यहीं गलती कर गया। जब हनुमान की पूँछ में कपड़ा बाँधा जाने लगा तो उनकी पूँछ लम्बी होती गयी,
एक स्थिति ऐसी आई कि पूरी लंका का कपड़ा समाप्त हो गया। जब पूँछ में आग लगाई गई तब हनुमान ने एक स्थान से दूसरे स्थान पर कूद कर पूरी लंका जला दिया।
” अचानक कुछ सोचकर हनुमान भयभीत हो गये “अरे मैंने तो अनर्थ कर दिया, मैंने तो पूरी लंका जला दिया। हो सकता है सीता भी जल गई हों?” उसी समय सीता अग्नि देव से प्रार्थना कर रही थीं, “हे अग्नि देव यदि मैं पवित्र स्त्री हूँ, अगर मेरी प्रीति अपने पति के अतिरिक्त अन्य किसी से न हो तो, हे ! अग्नि देव तुम हनुमान की रक्षा करना उनका एक रोम भी न जल सके।” हनुमान बच गये, वह जल न सके।
हनुमान तब विभीषण से मिले, जो कि रावण का भाई था, लेकिन वह राम का परम भक्त था। दोंनो में मैत्री हुई। हनुमान सीता के पास आये। लंका दहन के बाद भी हनुमान को सुरक्षित देख कर सीता अति प्रसन्न हुई।
हनुमान, राम के लिए सीता द्वारा पहचान के लिए दिये गये आभूषण को लेकर वापस चल दिये।
हनुमान को वापस आता देखकर सकल वानर समाज के जैसे प्राण वापस आ रहे हों। सभी वानर नाचने, गाने, चिल्लाने लगे, “हनुमान आ गये, हनुमान आ गये” कुछ वानर जो भूख-प्यास से मरणासन्न थे वे केवल इतना जान पाये कि हनुमान वापस आ गये। इस प्रकार संकट मोचन हनुमान ने एक बार फिर बानरों की रक्षा की। अब सभी लोग सुग्रीव के राज-प्रासाद में आये।
राम वहाँ थे। हनुमान ने सीता के सिर का आभूषण (Ceremonial Scorf) राम को दिया। उस आभूषण को पहचान कर राम की आखों में आँसू आ गये।
राम भाव-विभोर हो गये। दूसरे ही क्षण राम ने अनुभव किया कि हनुमान ने उनके लिए क्या किया है।
राम बोले, “हनुमान तुमने हमारे लिये जो कार्य किया, वह कार्य पृथ्वी या स्वर्ग का कोई भी व्यक्ति नहीं कर सकता था। इसके बदले में मैं तुम्हें क्या दूँ? मेरे पास कुछ भी तो नहीं है जिससे मैं तुम्हारे उपकार का बदला चुका सकूँ।”
यहाँ पर देखिए, त्रिभुवन के स्वामी; राम के पास सब कुछ था त्रिभुवन की सारी सम्पदा हर क्षण राम के लिए उपलब्ध थी, लेकिन राम ने सोचा त्रिभुवन की सम्पदा हनुमान का ऋण चकाने के लिए अपर्याप्त ।
देखिए एक महान व्यक्ति की यह वास्तविक महानता थी। उसे अपने सेवक की छोटी बड़ी हर सेवा का पूरा-पूरा ज्ञान होता है।
हनुमान – उस प्रेम और प्रेम की गरिमा को जानते हुए राम ने कहा, “मैं हनुमान के उपकार का बदला नहीं चुका ” सकता।” उन्होंने कहा कि “मेरे पास तो केवल ये बाहें हैं” और इतना कह कर राम ने अपनी बाहों में हनुमान को उठा लिया; उन्हें अपने आलिंगन में ले लिया। हनुमान की आँखों में आँसू आ गये। वही हनुमान जिन्होंने इतनी कठिन यात्रा की, इतनी विपत्ति झेली, बड़े-बड़े शत्रुओं को हराया- कहीं भी हनुमान की आँखों में आँसू नहीं आये थे।
लेकिन वही हनुमान अपने स्वामी की बाँहों में उनके कोमल स्पर्श से भाव विभोर होकर रोने लगे, “हे प्रभु! मुझे बचा लो, मुझे बचा लो, मुझे बचा लो ।” भाव विभोर होकर हनुमान ने ऐसा कहा था। यहाँ स्वामी और सेवक का प्रेम देखने लायक है।
राम की सेना समुद्र तट तक पहुँच चुकी थी। समुद्र पर पुल का निर्माण हो रहा था। सैनिक बड़ी-बड़ी चट्टाने तथा वृक्ष लाकर पुल बना रहे थे। राम भी समुद्र के पास बैठे थे तथा देख रहे थे कि लोग बड़ी-बड़ी शिलाएं उठा कर के ला रहे हैं। वे उन पर ‘राम – .”_”राम” लिख रहे हैं तथा जब उन्हें पानी में डालते थे; तो वे पानी में तैरने लगती थीं। राम ने कहा “मैं भी यह शिला पानी में फेंकूँगा।” जैसे ही राम ने वह शिला पानी में डाला वह तुरन्त डूब गई। राम को बहुत आश्चर्य हुआ।
उन्होंने हनुमान से कहा, “हनुमान यह कैसे हुआ? जब लोग पत्थरों को पानी में डालते हैं तो वे तैरते हैं किन्तु जब मैं पानी में डालता हूँ तो वे डूब जाते हैं।” यह सुनकर हनुमान हँसने लगे……… ‘जब हम लोग इन पत्थरों पर आपका नाम लिख देते हैं, तो आप इनमें विद्यमान हो जाते हैं और इसलिए वे तैरती हैं किन्तु आप जब उन पत्थरों को फेंकते हैं, तब वे डूब जाते हैं।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जिसे आपने छोड़ दिया अर्थात् जिसे आपने-अपने से दर फेंक दिया, वह कैसे बच सकता है, वह कैसे तैरता रह सकता है। हम राम-राम कहते रहते हैं तथा राम-राम इन पत्थरों पर लिखते रहते हैं, इसलिए वे पानी में तैरते हैं, इससे अन्यथा कैसे हो सकता है।
जिसे आप छोड़ देते हैं, उसे कैसे बचाया जा सकता है। आप यहाँ वही देख रहे हैं।” राम ने कहा “ओह! मैं समझ गया।”
राम रावण युद्ध चल रहा था। युद्ध में मेघनाद ने लक्ष्मण के ऊपर ब्रह्मास्त्र चला दिया जिससे लक्ष्मण मूर्च्छित हो गये। राम, लक्ष्मण के वियोग में विलाप करने लगे, ” सीता मुझे मिले या न मिलें मैं लक्ष्मण के बिना अयोध्या वापस नहीं लौट सकता।” दुःख से कातर राम भाई लक्ष्मण के लिए बहुत ही विलाप कर रहे थे।
राम को बताया गया कि लक्ष्मण जीवित हो सकते हैं यदि हनुमान सूर्योदय से पहले वह अमुक औषधि ला देते हैं जो कि मृत व्यक्ति को भी जीवित कर देती है । हनुमान जाते हैं तथा सूर्योदय से पहले वह औषधि (संजीवनी बूटी) ला देते हैं जिसके सेवन से लक्ष्मण का जीवन बच जाता है।
यहाँ भी हनुमान ने महान संकट में राम की सहायता किया। यहाँ भी हनुमान संकट मोचन की भूमिका में अपने स्वामी के पास सेवा हेतु खड़े हैं।
राम रावण युद्ध निर्णायक मोड़ पर पहुँच रहा था। रावण को अब समझ में आ गया था कि वह घोर विपत्ति में फँस गया है। उसका भाई कुम्भकर्ण उसके कई पुत्र यहाँ तक कि मेघनाद भी मारा जा चुका था।
रावण पूरी तरह निराश हो गया था, तभी किसी ने रावण को सुझाव दिया-“यह रास्ता है जिससे राम और लक्ष्मण युद्ध से हट सकते हैं और युद्ध जीता जा सकता है। आपका चचेरा भाई, अहिरावण पाताल का राजा है। उसके पास बड़ी-बड़ी जादुई शक्तियाँ हैं तथा वह देवी का बहुत बड़ा भक्त भी है।
उसकी सहायता के लिए देवी प्रगट हो जाती हैं। आप अहिरावण के पास जाइए वह आपकी सहायता करेगा।”
रावण अपने भाई अहिरावण के पास गया तथा सारी परिस्थिति बताया। सारी बातें सुनकर अहिरावण ने कहा “बहुत गलत हुआ, आपने बहुत ही गलत कार्य किया। राम, विष्णु के अवतार हैं तथा सीता माँ लक्ष्मी हैं फिर भी आपने ऐसा किया। आपको इसका बहुत बुरा परिणाम भोगना पड़ेगा।”
रावण कहा, “मैं तुमसे सलाह माँगने नहीं आया हूँ। मैं तो चाहता हूँ कि तुम मेरी रक्षा करो, मगर यदि तुम वह नहीं कर सकते, तब मैं चला जाऊँगा।” अहिरावण ने कहा, “तुम मेरे भाई हो; मुझे विपत्ति में तुम्हारा साथ देना चाहिए इसलिए मैं तुम्हारी सहायता करूँगा।”
अब देखिए क्या होता है। सुबह जब वानर और अन्य लोग उठे तो देखा कि राम और लक्ष्मण शिविर में नहीं हैं। सभी गहरी चिन्ता में डूब गये। वे समझ नहीं पाये कि यह क्या हो गया। सभी रोने-चिल्लाने लगे तथा हताश हो गये।
तभी विभीषण वहाँ आये और बोले, “हनुमान; आप प्रहरी थे, राम कैसे चले गये? यहाँ कौन आ सकता था?” हनुमान ने कहा, “आप ही यहाँ आये थे, अन्यथा मैं किसी को भी राम के शिविर में न जाने देता।” विभिषण ने कहा, अब मैं समझ गया। मैं यहाँ नहीं आया था।
मेरा भाई अहिरावण कोई भी रूप धारण कर सकता है। वही रावण की सहायता के लिए आया होगा और राम-लक्ष्मण को उठा ले गया होगा।”
अहिरावण पाताल लोक का स्वामी था। वह राम, लक्ष्मण को पाताल उठा ले गया था। समस्या यह थी कि वहाँ कैसे पहुँचा जा सकता है? केवल हनुमान से ही सबको आशा थी। हनुमान की कठिनाई थी कि वह पाताल लोक कैसे जाये? फिर भी हनुमान वहाँ पहुँच कर, अहिरावण की आराध्य देवी के पास गये।
अहिरावण देवी की पूजा में लगा था। बहुत ही प्रसाद तथा पूजा सामग्री वहाँ रक्खी थी। उस दिन नर-बलि भी दी जानी थी। बलि के लिए राम लक्ष्मण वहाँ लाये गये थे। हर चीज तैयार थी। इतने में हनुमान वहाँ आ गये ऐसा लगा जैसे देवी से उनसे कुछ मन्द स्वर में बात हुई जिसके परिणामस्वरूप हनुमान देवी का रूप धारण करके देवी के स्थान पर खड़े हो गये ।
पूजा की समाप्ति पर देवी को प्रसाद अर्पित किया गया। आज जो भी प्रसाद देवी के सामने आता वह खाती जातीं, देवी सारा प्रसाद खा गई, घर तथा रसोई का सारा प्रसाद देवी खा गई।
अहिरावण को आश्चर्य हुआ कि आज देवी इतनी भूखी क्यों हैं कि जो भी प्रसाद दिया जा रहा है वह खाती जा रही हैं। राम और लक्ष्मण बलि के लिए देवी के पास लाये गये। लक्ष्मण ने अब जीने की आशा छोड़ दिया था।
अहिरावण ने तब कहा, अब, अगर तुम लोगों का कोई रक्षक हो तो उसे याद कर लो, यह अन्तिम समय है अपने रक्षक को याद कर लो।” राम ने कहा, “हमें अपने रक्षक को याद करना चाहिए।” लक्ष्मण ने कहा, हमारा रक्षक कौन है? आप ही हमारे रक्षक हैं लेकिन आप जंजीरों में बँध हैं हनुमान भी हमारे रक्षक हैं लेकिन वे यहाँ कैसे आ सकते हैं?” राम ने कहा, “वह कौन है ? तुम देख नहीं रहे हो; हनुमान वहाँ पहले ही पहुँच चुके हैं?”
जैसे ही अहिरावण ने उन लोगों को मारने के लिए तलवार निकाला; वैसे ही हनुमान ने उसकी तलवार छीन कर, उसी से अहिरावण का वध कर दिया। राम और लक्ष्मण को वापस शिविर में ले आये। यहाँ हनुमान संकट मोचन ही नहीं अपितु राम लक्ष्मण के रक्षक भी हुए।
युद्ध समाप्त हुआ। राम लक्ष्मण सीता तथा हनुमान अयोध्या आ गये। राम राजा हुए सीता महारानी हुई। पूरी अयोध्या आनन्द से भर गई। देवता ऋषि मुनि सभी राम के दरबार में आते थे। चारों ओर दूध दही की नदियाँ वह रही थी।
वहाँ भय नहीं था; खतरा नहीं था; दुःख नहीं था; अकाल-मौत नहीं थी, राम का राज्य आदर्श राज्य था-कोई निकम्मा नहीं था; कोई भूखा नहीं था। वहाँ पर दो पेशे के लोग बेरोजगार थे यद्यपि वे भी भूखे नहीं थे।
पहले तो डाक्टर थे-जब वहाँ बीमारी ही नहीं थी तब तो डाक्टर बेरोजगार रहेंगे ही। दूसरे वकील थे- – जब वहाँ विवाद नहीं थे, झगड़े नहीं थे आपसी कलह नहीं थे तब वकील तो बेरोजगार हो ही जायेंगे। इसके माने कि लोगों को लड़ाई-झगड़ा करना चाहिए जिससे वकीलों को रोजगार मिले।
राम का राज्य आदर्श राज्य था। जहाँ की प्रजा मर्यादा- पूर्वक रहती थी। हनुमान सीता के साथ छोटे बच्चे की तरह लगे रहते थे। वह जहाँ भी जाती, जो भी करती उनके पीछे-पीछे छोटे बच्चे की तरह लगे रहते थे तथा दिनभर उनसे तरह-तरह के प्रश्न करते रहते थे।
उन्हें राज दरबार या राज्य की गतिविधियों से कोई मतलब नहीं था। एक दिन हनुमान ने देखा कि सीता अपने माथे पर सौभाग्य-सूचक सिन्दूर की बिन्दी लगा रही थीं। हनुमान ने पूछा, “माँ तुम ऐसा क्यों कर रही हो?” सीता ने कहा, “अरे तुम अभी छोटे बच्चे हो तुम नहीं जानोगे ? “
“नहीं माँ, नहीं माँ! तुम बताओ! तुम्हें बताना हि पड़ेगा।” तब सीता ने उत्तर दिया, “यह तुम्हारे स्वामी के सौभाग्य, दीर्घ जीवन तथा समृद्धि के लिए लगा रही हूँ।’
अब देखिए क्या होता है? हनुमान बाजार गये कई बोरे सिन्दूर तथा कई ड्रम घी खरीद लिये।
दोनों को मिलाकर उन्होंने पूरे शरीर में लगा लिया। नख से शिख तक कोई अंग नहीं छोड़े। सर के बाल भौंह तथा नाखून तक मे सिन्दूर लगा लिये।
जब उसी रूप में हनुमान दरबार में आये तो पूरी सभा के लोग हँसने लगे। लोग कहने लगे ” देखिए बन्दर तो बन्दर ही होते हैं। किसी ने पूँछ लिया, “आपने ऐसा क्यों किया?”
” क्यों? क्यों? क्या मैं अपने स्वामी को प्रेम नहीं करता? क्या मैं उनकी समृद्धि तथा दीर्घ-जीवन नहीं चाहता? सीता माँ कहती हैं कि इससे स्वामी की समृद्धि तथा ऐश्वर्य बढ़ता है, तब मैंने सोचा कि मैं इसे पूरे शरीर में लगा लूँगा जिससे मेरे स्वामी का अधिक से अधिक ऐश्वर्य हो, अधिक से अधिक समृद्धि हो तथा अधिक से अधिक दीर्घ-जीवन हो।”
सभी लोग हँस रहे थे लेकिन राम हनुमान के प्रेम तथा भक्ति से भाव-विह्वल हो रहे थे।
राम ने कहा, “आप सब लोग ऐसा जानिए कि जो हनुमान की आराधना करना चाहते हैं, जो हनुमान से कोई उपहार माँगना चाहते हैं, उन्हें सिन्दूर तथा घी मिलाकर हनुमान के शरीर में लगाना चाहिए। उन्हें सिन्दूर अर्पित करना चाहिए यह हनुमान के लिए हैं; इससे हनुमान प्रसन्न होते हैं।”
आपने देखा होगा कि हनुमान मन्दिरों में हनुमान की मूर्तियों में सिन्दूर घी लगा रहता है। कुछ बहुत अच्छे मन्दिरों के अलावा जिनको मूर्तियों संगमरमर, चाँदी या काँसे की होती हैं, अन्यथा जो मूर्तियाँ पत्थर की बनी होती हैं उनमें सिन्दूर तथा घी का लेप अवश्य लगा रहता है।
अब वह दिन भी आ गया जब सभी राजा तथा अन्य लोग जो कि अयोध्या आये थे; जाने को तैयार हुए। सुग्रीव, विभीषण तथा अन्य सभी को वापस जाना था। सभी को विदाई के समय उपहार स्वरूप- सोना, चाँदी, होरे, जवाहरात, भेंट किये जा रहे थे। सभी को सभी प्रकार के यथोचित उपहार दिये जा रहे थे। सीता के गले में एक बहुमूल्य हार था; जिसे वे बार-बार छूतों तथा राम की ओर देखतीं।
राम ने कहा, “तुम इस हार को जिस व्यक्ति को देना चाहती हो दे दो।” सीता ने कहा, “इसे मैं किसको हूँ मैं आपसे क्यों बताऊँ, आपने तो पहले ही सोच लिया है कि इसे किसको देना है।” वास्तव में सीता उस हार को हनुमान को देना चाहती थीं उन्होंने उस हार को हनुमान के गले में डाल दिया।
सभी लोगों ने इस हार को देखा तथा सराहा। उन लोगों ने कहा कि हनुमान कितने भाग्यशाली हैं कि उन्हें सीता के गले का यह बहुमूल्य हार मिला लेकिन हनुमान इस हार को दूसरे दृष्टिकोण से देख रहे थे। वह हार से एक दाना निकलाते; उसे दाँतों से तोड़ते; उसमें कुछ देखते फिर उसे फेंक देते। हनुमान को ऐसा करते देख सभी लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ।
विभीषण ने कहा, “आखिर बन्दर तो बन्दर ही होते हैं। ये और क्या कर सकते हैं। तभी किसी ने हनुमान से पूछा, “आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?”
हनुमान ने कहा, “मैं देख रहा हूँ इसमें राम का नाम लिखा है कि नहीं। जब मैं देखता हूँ कि राम नाम इनमें नहीं लिखा है तब ये मेरे लिए बहुत ही मूल्यहीन आभूषण हैं। आपके लिए ये हीरे-मोती हो सकते हैं; लेकिन मेरे लिए बेकार हैं।”
विभीषण ने कहा, “आपका इतना विशाल शरीर है क्या इसमें राम-नाम लिखा है?”
“हाँ बिल्कुल है। अगर नहीं होगा तो मैं शरीर त्याग दूंगा।’ इतना कहकर हनुमान ने अपना सीना फाड़ दिया।
लोगों ने देखा कि राम और सीता उनके हृदय में विराजमान हैं। शरीर से रक्त की धारा बहने लगी। राम आये और हनुमान को गले लगा लिया । राम के शरीर व वस्त्रों में रक्त लग गया। तुरन्त ही हनुमान का रक्त बहना बन्द हो गया तथा घाव भर गया।
हनुमान को कोई भी चाहे जो कहे हनुमान कभी ध्यान नहीं दिये- वह राम के कार्य में लगे ।
आप उन्हें मार सकते हैं, उन्हें गाली दे सकते हैं, उन पर व्यंग कर सकते हैं लेकिन वह कभी ध्यान नहीं देते। उनका केवल एक पाथेय या लक्ष्य था, “मुझे अपने स्वामी का कार्य करना है तथा मुझे अपने स्वामी के हर कार्य को करने के लिए हमेशा तत्पर रहना है” यही उनका उद्देश्य था।
अब मैं कथानक को और नहीं बढ़ाना चाहता। हनुमान के बारे में केवल एक दो बाते और बताना चाहूँगा जो कि आवश्यक हैं।
पृथ्वी पर राम के नाम की महत्ता स्थापित करनी थी यह बताना था कि राम का नाम इतना शक्तिशाली है कि कोई भी व्यक्ति जो राम का नाम ले रहा है-चाहे वह कितना बड़ा पापी या अपराधी क्यों न हो वह पाप से छूट जाता है।
साथ ही उसे राम के ब्रह्मास्त्र भी नहीं मार सकते हैं। कोई भी व्यक्ति जो राम का नाम ले रहा है; उसे स्वयं राम भी नहीं मार सकते।
पृथ्वी पर राम का कार्य समाप्त होने वाला था। सारे नाटक का पटाक्षेप होने वाला था। राम इस संसार को छोड़ने वाले थे। जिसका मतलब था कि संसार राम तथा उनकी शिक्षाओं से वंचित रह जाता।
राम की दया, ममता और उनकी भक्ति से भी संसार वंचित रह जाता। आगे आने वाली पीढ़ी की सुरक्षा के लिए किसी संबल की आवश्यकता थी, जिससे आदमी सभी तरह की बुराइयों तथा पापों से अपनी रक्षा कर पातें।
इन्हीं सब बातों पर विचार हो रहा था कि कैसे रास्ता निकाला जाय। रास्ता सोच लिया गया हनुमान इस कार्य को सम्पादित किया और सूत्रधार थे- नारद ।
राम के दरबार में प्रतिदिन बहुत से साधु-सन्त; ऋषि-मुनि आया करते थे। राम भी दरबार में रहते थे। इसी तरह एक दिन बहुत से साधु-सन्त एवं कई देशों के राजा दरबार में उपस्थित थे। उसी समय काशी-नरेश भी दरबार में जा रहे थे।
भगवान विष्णु के भक्त नारद भी उसी समय वहाँ आये तथा उन्होंने काशी नरेश से कहा, “आप राम के राज-दरबार में जा रहा हैं आप सबको प्रणाम करेंगे ” ठीक है; सबको प्रणाम करिए लेकिन सन्त विश्वामित्र पर कोई ध्यान मत दीजिएगा उनको प्रणाम मत करिएगा उनका अभिवादन मत करिएगा।” –
काशीराज ने कहा, “यह कैसे संभव है? वह जीवित अग्नि शिखा हैं तथा ” ऋषि हैं, मैं उनकी अनदेखी कैसे कर सकता हूँ? उनका अपमान कैसे कर सकता हूँ?
‘अरे; नहीं नहीं, तुम वैसे करो, तुम्हें डरने की आवश्यकता नहीं है।” काशी-नरेश दरबार में जाते हैं। वह छोटे-बड़े सभी ऋषियों, मुनियों, सन्तों को प्रणाम करते हैं लेकिन महान सन्त विश्वामित्र को न प्रणाम किया तथा न ही उनकी तरफ ध्यान दिया। अन्य लोगों ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया।
विश्वामित्र समझ गये कि उनका कितना बड़ा अपमान किया गया है। जब ऐसा हुआ तथा सभी लोग अपने-अपने आसनों पर बैठ गये तब विश्वामित्र ने राम से पूछा, “यदि आपके दरबार में या आपके राज्य में कोई व्यक्ति साधु सन्त या देवता का अपमान करता है तो आप क्या करेंगे?” राम ने कहा “मैं तुरन्त उस व्यक्ति का बध कर दूँगा; उसे नष्ट कर दूँगा” तब उन्होंने कहा, “काशी के नरेश ने सभी का आदर किया, सभी को प्रणाम किया लेकिन मेरी अनदेखी किया; मेरा अपमान किया। “
राम यह सुनते ही क्रोधातुर हो गये क्योंकि ऐसी अकथनीय अभद्रता उनके दरबार में हो गई ‘ उन्होंने घोषणा की, “सूर्यास्त होने से पहले ही मैं काशी नरेश का बध कर दूंगा।”
राम के ऐसा कहने पर काशी नरेश बहुत घबड़ा गये और वह राज दरबार से बाहर आये। उन्हे मालूम हुआ था कि मृत्यु निकट है। उनका जीवन सूर्यास्त तक ही सीमित था।
काशीराज ने नारद से कहा, “आपने यह क्या किया, अब आपको मुझे बचाना पड़ेगा।” “मैं आपको अब बचा नहीं सकता यद्यपि मैंने आपसे वैसा करने को कहा था; लेकिन मैं नहीं जनता था कि ऐसी परिस्थिति आ जायेगी। आप हनुमान की मां अंजना के पास तुरन्त जाइये वही आपको बचा पायेंगी।
आप वहाँ जाइए उनको प्रणाम करिए तथा उनसे वचन लीजिए कि वह आपकी रक्षा करेंगी। केवल इसी तरह आप अपने को बचा सकते हैं।”
काशी-नरेश वहाँ गये, माँ के चरणों पर गिर पड़े। माँ तो माँ ही होती है। उन्होंने काशी राज को उठा लिया और कहा, “मेरे बच्चे तुम इतने परेशान क्यों हो?”
उन्होंने कहा, “माँ मुझे वचन दो कि मैं जो मांगूँगा तुम उसे दोगी, “हाँ मैं वचन देती हूँ, मैं तुम्हें दूँगी, पहले मुझसे कहो तो।” काशी नरेश ने दुबारा माँ से आश्वासन माँगा। माँ ने कहा, “हाँ तुम जो माँगोगे वही वचन दूंगी।” ” “
तब उन्होंने अपनी सारी समस्या बताया कि मैने ऐसा किया तथा राम ने कहा कि सूर्यास्त से पहले वे मेरा वध कर देंगे।”
अब माँ को पूरी बात समझ में आई “ओह! मैं कैसे कर सकती हूँ? अरे मैंने यह कैसी प्रतिज्ञा कर ली ? मैं उसका पालन कैसे करूँगी? राम जिसके विरुद्ध हों उसे कैसे बचाया जा सकता है?” वह समस्या में पड़ गई; संकट में पड़ गयी।
तब उन्होंने हनुमान को याद किया।
हनुमान ने राम से कहा, ” मेरी माँ मुझे याद कर रही है; क्या मैं जा सकता हूं?
राम ने कहा, “हाँ, तुम्हें अवश्य जाना चाहिए: माँ तुम्हें याद कर रही हैं और हाँ; तुम अपनी ही तरफ से उनको प्रणाम मत करना बल्कि हमारी तरफ से भी उन्हें नमन करना, क्योंकि वह मेरी भी माँ हैं।” राम माँ अंजना का इतना सम्मान करते थे।
हनुमान वहाँ पहुँचते हैं; माँ बहुत ही दुःखी थी। काशी नरेश भी वहाँ थे। माँ ने कहा, “ मेरे बेटे ! मेरे जीवन में अभूतपूर्व संकट आ गया है, इसलिए मैंने तुम्हें याद किया है। इनका जीवन मेरी प्रतिज्ञा पर निर्भर है। मैंने अनजाने में ऐसी प्रतिज्ञा कर ली जिससे मैं दुविधा में फँस गई हूँ। अब इनको बचाकर ही अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर पाऊँगी ।”
हनुमान ने कहा,” माँ आपने बहुत ही कठिन कार्य ले लिया है; फिर भी हनुमान ने कहा, कुछ न कुछ तो किया जायेगा।”
हनुमान संकट मोचन हैं, इन्हें अपने माँ की प्रतिज्ञा भी पूरी करनी है तथा काशी-राज के जीवन की रक्षा भी करनी है।
अपने पिता द्वारा कैकेयी से की गई प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए – राम ने अयोध्या का राज्य छोड़ दिया था। ऐसा राम ने अपने पिता के प्रतिज्ञा-पालन ‘ के लिए किया । जब कि दशरथ ने स्वयं कहा था, “मैं अपना प्रण तोड़ दूँगा, ” तुम वन मत जाओ। लक्ष्मण ने कहा था, “मैं उन्हें वाणों से बीध दूँगा, मैं उनकी ” हत्या कर दूंगा, मैं उन्हें बन्दी बना लूँगा। आप वन मत जाइये।”
राम ने कहा, “नहीं मुझे जाना ही चाहिए। मुझे अपने पिता की प्रतिज्ञा ” पूरी करने में उनका सहयोग करना चाहिए।”
हनुमान राम के दाहिने हाथ थे। हनुमान सोच रहे थे “मुझे अपनी माँ के प्रण की रक्षा करनी है। “
” हनुमान स्वामिभक्त सेवक की तरह राम के पास आये और बोले, “स्वामी; मुझे आपसे कुछ माँगना ‘ और हनुमान बगल में खड़े हो गये।
राम ने कहा “हनुमान संसार में ऐसी कौन सी चीज है जिसे मैने तुम्हें नहीं दिया? और कौन सी चीज है जो मैं तुम्हें नहीं दे सकता हूँ।”
हनुमान बोले “प्रभु, मुझे यह वर दीजिये कि कोई व्यक्ति जो आपका नाम ले रहा हो उसे न तो पृथ्वी की तथा न ही स्वर्ग की कोई शक्ति मार सके और उसे न मैं मार सकूँ न तो ब्रह्मा ही मार सके और आपके नाम की शक्ति तथा उस नाम को ले रहे व्यक्ति में कोई अन्तर न हो।
जैसे पृथ्वी की कोई शक्ति आपको नष्ट नहीं कर सकती उसी प्रकार आप वर दे कि कोई भी शक्ति आपके नाम को नष्ट न कर सके।”
राम ने हनुमान की प्रार्थना सुनकर प्रसन्नता से वरदान दे दिया।
हनुमान काशी नरेश के पास गये और बोले “आओ मेरे साथ आओ ! मेरे साथ सरयू के किनारे चलो।
हनुमान ने काशीराज को सरयू जल में खड़ा किया और बोले “राम राम राम कहते जाओ और ध्यान रखना कि यह क्रम एक क्षण. के लिए भी न टूटने पाये।’
जहाँ हनुमान यह सब कर रहे थे वहाँ साधु-सन्त, ऋषि, मुनि, देवता सब वहाँ आ गये। सीता तथा महल की मातायें भी वहाँ आ गई थीं कि ” क्या होने जा रहा है?”
संध्या हो रही थी, सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहे थे। राम ने काशीराज को मारने के लिए प्रथम बाण का संधान किया। लेकिन राम राम राम कहते काशी नरेश के पास वह वाण नहीं पहुँच सका।
वह वाण पुन: राम के तरकश में वापस आ गया। राम की क्रोधाग्नि धधक उठी “यह कैसे संभव है। मेरा एक वाण सम्पूर्ण धरा को जलाकर राख कर सकता है; यह वापस कैसे आ गया?’
राम ने दूसरा वाण संधान किया और वह वाण भी वापस आ गया। राम अत्यधिक चिन्तित हो गये, “मुझे वहाँ अवश्य जाना चाहिए, देखना चाहिए।
वहाँ हनुमान खड़े हैं ” राम ने कहा ” मैं इन्हें मार डालूँगा। मैने प्रण किया है, और उसे मैं पूरा करूँगा। मैं उस महान ऋषि की प्रतिष्ठा और सम्मान की रक्षा करूँगा। मैं राज-पद की गरिमा का निर्वाह करूँगा। जिसके अन्तर्गत राजा अपना सर्वस्व निछावर करके यहाँ तक कि अपना जीवन भी त्याग कर नियम की रक्षा और न्याय की रक्षा करता है।”
राम के वहाँ पहुँचने पर सभी ऋषि मुनि देवता सोचने लगे—“ क्या होने वाला है?” यह युद्ध तो स्वामी और सेवक के बीच हो रहा है। यह तो राम और हनुमान के अस्तित्व की लड़ाई है। वास्तविक युद्ध इन्हीं दोनों के बीच हो रहा था। स्थिति बहुत ही जटिल हो गयी थी।
राम के गुरु वशिष्ठ ने विश्वामित्र से कहा “आप इस उत्पन्न विषम परिस्थिति को देख रहे हैं। अब आप राम के पास जाइये और कहिए कि आपको काशीराज से कोई शिकायत नहीं।”
विश्वामित्र राम के पास आये और बोले, “भगवान राम! मैं काशी-नरेश के भक्ति-भाव से पूर्णत: सन्तुष्ट हूँ। वह सरयू के जल में खड़े हैं और राम राम राम कह रहे हैं। वह मेरी अपेक्षा से अधिक खरे उतरे हैं। कृपया उन्हें क्षमा कर दें, मैंने उन्हें क्षमा कर दिया है।”
राम ने कहा, “मुनिवर यदि आपने काशीराज को क्षमा कर दिया है तो मुझे उनसे कोई आपत्ति नहीं है।” इस प्रकार परवर्ती काल के लिए हनुमान ने राम नाम की महिमा को स्थापित किया।
अब मैं अपनी बात एक छोटी सी कहानी से यह वार्ता समाप्त करूँगा। यह कहानी पुस्तकों में लिखी है; लेकिन मेरे लिए इसका महत्व है क्योंकि यह कहानी बाबा जी ने अपने श्री मुख से सुनाई थी।
जगन्नाथपुरी एक प्रसिद्ध तीर्थ है। वहाँ पर समुद्र के किनारे भगवान विष्णु के अवतार भगवान जगन्नाथ का प्रसिद्ध मन्दिर है। वहीं पर हनुमान जी का भी एक मन्दिर है जिसमें हनुमान के पैर लोहे की जंजीरों से बंधे हैं; जिससे वे भाग न सकें।
इसकी कहानी इस प्रकार है। जब भगवान जगन्नाथ, जगन्नाथपुरी आये और वहाँ रहना चाहते थे, तब समुद्र का पानी उनके मन्दिर में घुस जाता था। बड़ी, कठिनाई हो रही थी कि भगवान मन्दिर में कैसे रहें। तब देवताओं ने विचार विनमय किया कि समुद्र का पानी केवल हनुमान ही रोक सकते हैं।
वे लोग हनुमान के पास गये और बोले, “जगन्नाथजी विष्णु हैं, विष्णु भी राम ही हैं, अतः जब राम वहाँ हैं तो आपको भी वहाँ रहना चाहिए और आप देख रहे हैं कि समुद्र का पानी मन्दिर में प्रवेश कर रहा हैं। आपको समुद्र को रोकना पड़ेगा।”
हनुमान ने कहा ठीक है मैं वहाँ रहूँगा। तब से समुद्र के पानी का प्रवेश मन्दिर में होना बन्द हो गया। बहुत दिनों बाद एक दिन समुद्र का पानी फिर मन्दिर में भर गया। सभी लोग चिन्तित हो गये। यह कैसे हो गया कि वहाँ हनुमान थे और पानी अन्दर आ गया।
जब हनुमान वहाँ प्रहरी हों तो समुद्र का पानी मन्दिर में आने की बात लोंगो की समझ में नहीं आ रहा था… क्या हनुमान अन्यमनस्क हो गये?” ऐसा सोच कर जब वे वहाँ गये तो देखा कि भगवान वहाँ नहीं थे। थोड़ी प्रतीक्षा के बाद हनुमान वहाँ आये और शर्मिन्दा हो गये। लोंगो ने उनसे पूछा, “आप कहाँ गये थे?”
“मैं अयोध्या गया था।”
‘क्यों”
“ये लोग मुझे प्रतिदिन चावल का भोग लगाते हैं, जो कि मुझे पसन्द नहीं है, इसलिए में लड्डू खाने अयोध्या चला गया था।” तब यह निर्णय हुआ कि पहले इनके पैरों में लोहे की जंजीर बाँध दी जाए तथा प्रसाद के लिए प्रतिदिन लड्डुओं की व्यवस्था की (गई) जाय ।
मैं समझता हूँ कि अब यहीं समाप्त करूं। आपका बहुत समय लिया…… आपने इसे पसन्द किया यही मेरी प्रसन्नता है।
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